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कनक तिवारी रविवार डॉट कॉम कि कॉलमिस्ट है गूजरात व नरेंदर मोदी के परिपेक्ष्य मे उनका यह गहन आलेख उन्ही के शब्दोँ  मे …………। 

नरेंद्र मोदी

भाजपा ने अपना अश्वमेध वाला घोड़ा सिकंदर महान की तरह भारत विजय अभियान के नाम पर छोड़ दिया है. कहता है भारत विजय किए बिना मानने वाला नहीं. पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा का ‘फील गुड‘ और ‘इंडिया शाइनिंग‘ का नारा फील बैड और कांग्रेस शाइनिंग में तब्दील हो गया. उससे सबक लेकर भाजपा बल्कि संघ परिवार ने गुजरात मॉडल के विकास को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का खुद में जोश भर लिया है.

भाजपा ने घोषित तौर पर लगभग 500 करोड़ रुपयों का अंतर्राष्ट्रीय संचार एजेंसियों जैसे एप्को, वर्ल्डवाइड, अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन एजेंसी ओगिल्वी एंड माथेर की सहायक कंपनी सोहोस्क्वेयर तथा मैक्कान वर्कग्रुप की सहायक कंपनी टैग को प्रचार और अफवाह अभियान ठेका दे रखा है. इनमें से कुछ एजेंसियां पिछले लोकसभा चुनाव के पहले से ही भाजपा के पक्ष में कार्यरत रही हैं.

अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार के अभियान में प्रमोद महाजन के संयोजकत्व में भाजपा ने 150 करोड़ रुपयों का व्यय किया ही था. चुनाव में औसतन प्रत्येक उम्मीदवार आसानी से 5 करोड़ रुपयों तक खर्च कर लेगा. दिल्ली फतह करने का यह अंतर्राष्ट्रीय प्रचार-बुद्धि का भारतीय राजनीतिक अनुभव-उत्कर्ष बनने का संभावना क्षण लाया गया है.

संघ परिवार की चतुर कूटनीति है कि गुजरात के विकास मॉडल की तुरही बजाते समय अपने स्थायी एजेंडा सांप्रदायिक धु्रवीकरण को भूलना श्रेयस्कर नहीं होगा. देश में छोटे मोटे सांप्रदायिक दंगों तथा विवादों के चलते हिंदू मुस्लिम सौहार्द्र की पतली त्वचा को उस घाव के ऊपर से खरोंचा जाता रहा जो भारत विभाजन के पहले से कुछ लोगों द्वारा स्थायी नासूर बनाए जाने के कुचक्र का शिकार है. गुजरात का विकास मॉडल उस खरोंच पर भी मलहम की तरह लगाता दिखाया जाए लेकिन सौहार्द्र की त्वचा को पपड़ियाने नहीं दिया जाए. यही तो विराट मोदी अभियान की नई महाभारत का युद्ध पर्व है.

यदि सुप्रीम कोर्ट नहीं होता तो ऐसा ही अभियान अयोध्या में लंका कांड में तब्दील होने को सदैव बेताब रहता. संघ परिवार के आंतरिक रणनीतिकार यह स्वीकार करने में गुरेज नहीं कर सकते कि गुजरात विकास मॉडल के आर्थिक उद्घोष औैर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सांप्रदायिक आग्रह को समानांतर के बदले अंतर्निर्भर रणनीति का हिस्सा बनाया जाए. इस बार सोमनाथ से आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या की धार्मिक यात्रा नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में वडोदरा से वाराणसी होते हुए दिल्ली की राजनीतिक यात्रा की जाए.

भाजपा की कई सरकारें खुले आम प्राकृतिक संसाधनों, लौहअयस्क, कोयला, जंगल, जमीन, बॉक्साइट वगैरह बहुत बड़े उद्योगपतियों को खैरात की तरह दे रही हैं. कांग्रेस उसमें से आरोपों के अनुसार छोटा हिस्सा मिल जाने से ही इतनी खुश दिखाई देती है कि न तो जनआंदोलन कर पाती है. न ही न्यायालयों में परिणामधर्मी मुकदमे लड़ पाती है. अपराध जगत में ऐसा भी समय आता है जब चोरी करने वाले पकड़े जाते हैं और डकैत मूंछों पर ताव देते दाऊ या ताऊ कहलाते हैं.

उसका यह भी कारण है कि दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के आर्थिक फलसफे का कंस्ट्रक्ट और टेक्स्ट तो एक ही है. दोनों किसान विरोधी, मजदूर विरोधी, गरीब विरोधी और छोटे व्यापारी विरोधी भी हैं. दोनों के वैश्विक तथा भारतीय उद्योगपतियों से कारोबारी और सियासी रिश्ते हैं. दोनों में अंतर केवल नेतृत्व के चेहरों का है. एक पार्टी कहती है उसने आर्थिक चिंतन के सरदार को नेता चुना. दूसरी पलटकर कहती है उसने असरदार नेता को चुना है.

नेता या चेहरा कोई भी हो वह तो राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का सरदर्द था और बनने ही वाला है. हिंदुत्व की विजय की महत्वाकांक्षा के कुलांचे भरते हुए यह संघ परिवार और भाजपा को रास आया कि विकास की कांग्रेसी असफलता को प्रतिद्वंद्वी आर्थिक मॉडल दिखाकर दोनों लोक साध लिए जाएं. गुजरात में हुए 2002 के दंगों से दक्षिणपंथी योजनावीरों को निश्चित तौर पर आघात लगा था. कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों ने कटुतम आलोचना भले की. वे भाजपा की अगली कार्ययोजना को कमतर आंकते रहे. एन.डी.ए. के अन्य साथी घटक दलों को भी यह सूंघना संभव नहीं हुआ कि अंततः भाजपा का एजेंडा क्या है.

यह था वह मनोवैज्ञानिक वातावरण जिसके तहत भाजपा ने इंडिया शाइनिंग के अपने पुराने 2004 के नारे को नई बोतल में भरा. नवउदारवाद, निजीकरण तथा वैश्वीकरण की समर्थक ताकतों को भाजपा ने अपने राजनीतिक छाते के नीचे खड़े करने का जतन भी किया. देश के पहले दस बड़े नव धनाड्यों में से अधिकांश ने भाजपा के कार्यवृत्त को लेकर हामी भर दी. अतिरिक्त लाभ यह मिला कि जो गुजरात पहले से ही कांग्रेस के कार्यकाल में विकसित रहा, उसका भी श्रेय लूटने में मोदी ने कोई हिचकिचाहट नहीं की.

पुराने तथ्यों, आंकड़ों, उपलब्धियों वगैरह को मोदी प्रशासन की छबि को रोशन करने के काम में इस तरह इस्तेमाल किया गया कि जनस्मृति को पुराना कुछ भी याद नहीं रहा. सब कुछ नया नया लगा. इसी बीच मोदी और उद्योगपतियों की अंतरंग मुलाकातें संख्या और पारस्परिकता में बढ़ती रहीं. लक्ष्य एक था. शक्तियां दो. धनुष उद्योगपतियों का और तीर पर भाजपा तथा मोदी का नाम लिखा गया.

मूलतः कुछ नहीं बदला. हिंदुत्व का नया नामकरण गुजरात का विकास मॉडल हुआ. केवल विकास मॉडल कहने से बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु वगैरह के भी उस सूची में घुस जाने के अफसाने बुने जाते. 2002 के गुजरात दंगों के दाग को मिटाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को हटाकर बाजार को केन्द्रीय भूमिका दी गई. विदेशी विज्ञापन एजेंसियों को पार्टी के मस्तिष्क का चीरघर बनाया गया. कार्यकर्ता संघ दक्ष की आवाज़ पर घुटनों घुटनों रेंगते भर रहे.

अमेरिकी चुनावों में धनबल का उपयोग होता है. उस फेनोमेना को भी पछाड़ने के गुर सिखाए जाने लगे. चुनाव प्रचार मतदाताओं को रिझाने या प्रभावित करने के बदले उनमें नई संस्कारशीलता डालने का माध्यम बनाया गया है. चुनाव परिणाम चाहे जो हो. भाजपा और मोदी के पक्ष में केवल वोट नहीं चाहिए. इस विचारधारा की मर्यादा के खूंटे से मतदाता को बांधने का जतन किया जा रहा है. यह वाचाल प्रचार हुआ कि 2002 के बाद गुजरात दंगामुक्त प्रदेश है, जबकि बाकी राज्य ऐसा दावा नहीं कर सकते.

गुजरात के मुसलमान इस कदर भयभीत कर दिए गए हैं कि उनकी ओर से दंगा करने की संभावनाएं ही नहीं हैं. मोदी के नेतृत्व में बकरी के मुकाबले यह शेर की प्रकृति की हिंदू सांप्रदायिकता है जो पुचकार की मुद्रा में दहाड़ लेती है कि वह बकरी के साथ एक ही घाट में साबरमती का पानी पी रही है. मोदी ने वह काम कर दिखाया जो विपरीत तरह के हिन्दू गांधी ने भी नहीं किया था. गुजरात में गांधी का कोई नामलेवा रहेगा-यह भी संदेह है.

नरेन्द्र मोदी मिथक पुरुष की तरह प्रचारित हैं. वे अक्षम कांग्रेस नेतृत्व की असफलता का पर्दाफाश करते नए रक्षक के रूप में बाज़ार में खुद अपनी ब्रांडिंग करने में मशगूल हैं. यह तय है कि अंबानी, अदानी, टाटा, रुइया, मित्तल, जिंदल, अनिल अग्रवाल जैसे बीसियों बड़े उद्योगपति देश के सरकारी और आम जनता के संसाधनों के कब्ज़ेदार बना दिए जाएंगे. इन घरानों में से कुछ ने मीडिया पर भी अपना मालिकी हक और दबदबा कायम कर लिया है. विरोध की आवाज़ें भी मीडिया की ही मोहताज़ होती हैं.
मोदी के नित नए परिधान फिल्मी सितारों तक को बौना बना चुके हैं. इस देश के निठल्लों, युवजनों, सेवानिवृत्तों और क्रीड़ाप्रेमियों में लोकप्रिय क्रिकेट खिलाड़ी मोदी के प्रचार प्रभामंडल में ‘उडगन केशवदास‘ हो गए हैं. एक नया अवतार, मसीहा और क्रांतिकारी जननायक अपने ही हाथों अपनी संभावनाओं की कंटूर रेखाएं खींच रहा है. चुनाव परिणाम का ठीकरा आखिर जनता के सिर पर ही फूटेगा.

मीडिया तथा स्वयंभू राजनीतिक विश्लेषक पंडितों ने लोकसभा चुनाव को मतदाता के विवेक की नस्ल परिवर्तन के रूप में प्रचारित करना शुरू किया है. जातिवाद, क्षेत्रीयतावाद, स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों की छबि वगैरह पुराने विचार आधारों को दरकिनार कर मतदाता को सुशासन, विकास और बुनियादी परिवर्तन की घुट्टी पिलाई जा रही है. कहा जा रहा है कि ये ही वे केन्द्रीय प्रश्न हैं.

इन पर पूरे देश में इस बार एक ही पैटर्न का मतदान होने की संभावना है. ऐसी सरकार चुनी जा सकती है जिसकी राजनीतिक और आर्थिक नीतियां सुस्पष्ट और पारदर्शी हों. साथ ही नेतृत्व में कुछ कर गुजरने की क्षमता हो. समझदार तार्किक और अनुभवी लोगों के प्रश्न पूछते ही उन्हें धकिया दिया जाता है. खुद भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, लालजी टंडन, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और लालमुनि चैबे वगैरह कई उदाहरण हैं. विकास शब्द की परिभाषा तो क्या उसका शब्दकोषीय अर्थ नहीं बूझ सकने वाले लालबुझक्कड़ीय मतदाता भी गुजरात के विकास मॉडल को सर माथे पर लादे गली चैराहों में अफवाहग्रस्त विचारक बने हुए हैं.

मौजूदा लोकसभा चुनाव में कट्टर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, आर्थिक उदारवाद, विकास का गुजरात मॉडल, 2002 के गुजरात दंगों में मुसलमानों का कत्लेआम और देशज कारपोरेट खिलाड़ियों की खुली सक्रिय भूमिका का सीधा घालमेल है. गुजरात मॉडल को इस तरह प्रचारित किया गया है मानो वही आधुनिक रामराज्य है. राम अल्पसंख्यकों के खिलाफ कट्टर हिंदुत्व के धनुर्धर प्रवक्ता के रूप में विश्व हिन्दू परिषद की राजनीतिक तिजारत के सबसे बड़े प्रवक्ता बना दिए गए हैं.

तथाकथित संभावित विकास के पुरोधा यह नहीं कहते कि उनकी आर्थिक नीतियों के कारण आम जनता के रहनसहन का स्तर सुधरेगा, नौकरियां मिलेंगी, महंगाई और मुद्रा स्फीति कम होगी, अमीर को बहुत अधिक अमीर बनने के अवसर मिलने के बदले गरीब को बहुत अधिक गरीब बनाने के कुचक्र रोके जाएंगे. आम मतदाता फिर भी विकास के उन्मादी नारे में इस कदर गाफिल रखा जा रहा है कि अपना राजनीतिक विवेक उस दौलत की चकाचैंध के लिए गिरवी रख दे जो नवधनाड्य अरबपतियों की तिजोरियों में कैद होने वाली है.

इस सिलसिले में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सहित तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी सैद्धांतिक रूप से कारपोरेट ऑक्टोपस की गिरफ्त से बाहर नहीं हैं. कम्युनिस्टों के नेतृत्व के वामपंथी दल अनुकूल अवसर मिलने पर भी अपने प्रचारतंत्र में वह मारक क्षमता गूंथ पाने में असफल दीख रहे हैं, जो अन्यथा इन पार्टियों का जनवादी राजनीतिक चरित्र तो रहा है.

आंकड़ों की अंकगणित लेकिन गुजरात गौरव गायन के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ती. अपनी तमाम आर्थिक तरक्की के बावजूद गुजरात औद्योगिक पूंजी निवेश के क्षेत्र में ओडिसा और छत्तीसगढ़ के बाद ही उद्योगपतियों की रुचि का प्रदेश है. वहां रोजगार और नियोजन के आंकड़े ढलान की ओर हैं.

इंस्टीट्यूट ऑफ अप्लाइड मैनपावर रिसर्च की मानव विकास संबंधी ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार गुजरात इस इलाके में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश वगैरह के पीछे खड़े होकर देश में नौवें स्थान पर है. 1999-2000 से इस स्थिति में यथास्थिति रही है. स्वास्थ्य सूचकांकों को लेकर भी मोदी प्रशासन पिछड़ा हुआ है. जच्चा की मृत्यु दर में तमिलनाडु का अनुपात 97 और महाराष्ट्र का 104 है. वहीं यह अंक गुजरात में 148 है.

नवजात शिशुओं की मृत्युदर तमिलनाडु में 71 और महाराष्ट्र में 56 तथा राष्ट्रीय औसत में 86 1992-93 में रही है. वह घटकर तमिलनाडु में 22, महाराष्ट्र में 25 और राष्ट्रीय औसत में 44 हो गई है. यही आंकड़ा गुजरात के लिए पहले 72 और अब 41 अंक पर टिक गया है. गुजरात के बच्चों का कुपोषण राष्ट्रीय चिंता का विषय है. 1992-93 में 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित थे. भुखमरी का वह आंकड़ा 2005-06 में 51.7 प्रतिशत पहुंच गया. हाशिए पर पड़े लोगों के स्वास्थ्य सूचकांक भी गुजरात में अस्वस्थ नज़र आते हैं. अनुसूचित जातियों का मृत्यु सूचकांक 1992-93 में तमिलनाडु में 90 अंकों पर था. वह 2005-06 में घटकर 37 हो गया. गुजरात मेंं वह 70 से घटकर 65 पर ठहर गया. आदिवासियों के लिए यह अंक 2005-06 में 86 पर ठहरा हुआ है, जबकि राष्ट्रीय औसत 62 तक उतर गया है.

छह वर्ष से अधिक तथा चैदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को संविधान के अनुच्छेद 21 (क) के अनुसार स्तरीय और वांछित शिक्षा पाने का मौलिक अधिकार है. इसकी हालत भी गुजरात में अच्छी नहीं है और न ही प्रौढ़ शिक्षा की. गुजरात इस सिलसिले में पहले 21 वें नंबर पर था. अब देश में 26 वें नंबर पर आ गया है.

विशेषज्ञ अतुल सूद के अनुसार गुजरात में कुछ क्षेत्रों में अवश्य प्रगति की है लेकिन वहां भी उसे अन्य प्रदेशों के मुकाबले पिछड़ने का सुयश प्राप्त होता रहता है. 1993-94 में ग्रामीण गुजरात में 43.3 प्रतिशत गरीबी थी. उसे 2011-12 में गुजरात ने घटाकर 21.5 प्रतिशत कर दिया. इसी अवधि में तमिलनाडु ने ऐसी ही गरीबी को 51.2 प्रतिशत से घटाकर 15.8 प्रतिशत कर दिया.

हाशिए पर पड़े तरह तरह के कमज़ोर वर्गों के स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी तथा जीवनयापन के अन्य सूचकांकों के संदर्भ में भी तथ्यपरक रिपोर्टों के आधार पर गुजरात के पास दंभ करने के लिए बहुत कुछ नहीं है. ‘थोथा चना बाजे घना‘ की अनुकृति में इसके बावजूद यह मोदी की मुहावरे वाली 56 इंची छाती है जो हुंकार, गर्जना, ललकार, दहाड़, चीत्कार, चुनौती वगैरह में विश्वास करती हुई पौराणिक शैली में आधुनिक जनयुद्ध करने पर आमादा है.

नवविकासवाद के मोदीनुमा प्रवर्तक विदेशी पूंजीनिवेश की प्रत्यक्षता के विरोधी नहीं बल्कि कायल हैं. उन्हें उतनी ही मात्रा तथा शिद्दत के साथ भारतीय पूंजीपतियों का निवेश भी चाहिए. राष्ट्रीय उत्पादन सूचकांक बढ़ाने के लिए उन्हें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की उपादेयता में कोई संदेह नहीं है. विकास प्रक्रिया में मानवीय चेहरा उकेरने के नाम पर सामंतवादी मुद्राएं, आर्थिक सुधार, साक्षरता, पेयजल, नवजात शिशुओं का संरक्षण जैसे कार्यक्रमों को प्राथमिकता के स्तर पर प्रचारित करती हैं. इसके साथ साथ यह अंदरूनी चेतावनी भी गूंजती रहती है कि राज्य की आर्थिक व्यवस्था लोकप्रियता की भेंट नहीं चढ़ जाए.

नवउपनिवेशवाद एक ऐसा सपना बनाया गया है जिसे साकार करना ज़रूरी है. उसके लिए ‘गरीबी हटाओ‘ जैसे सपने फिलहाल प्रतीक्षा कर सकते हैं. उद्योगपतियों को सस्ती दरों पर भूमि तथा अन्य वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराना अंततः उत्पादकता से जुड़ा समीकरण है. उससे प्राप्त उत्पाद को कमज़ोर वर्गों के लिए उपयोग में लाए जाने से विकास की प्रक्रिया भोथरी नहीं हो पाएगी.
विकास का मौजूदा मॉडल मोदी या भाजपाजनित नहीं है. पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में वह नरसिंहराव के प्रधानमंत्रीकाल में तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा भस्मासुर की कथा के अनुरूप ईजाद किया गया था. उस पूरी व्यवस्था के हाथ पांव और नीयत में फर्क हुए बिना मनमोहन सिंह के बदले मोदी का चेहरा लटकाए जाने की वर्जिश को क्रांतिकथा के बीजपाठ के रूप में समझाया जा रहा है. 

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