‘ ऐसा मालूम होता है कि साहित्य अधिक से अधिक औरतों के क्रिया-कलाप की चीज हो गयी है। पुस्तक की दुकानों में , किसी सम्मेलन में या लेखकों के सार्वजनिक पठन में और मानविकी के लिए समर्पित विश्वविद्यालय के विभागों में भी स्त्रियाँ स्पष्ट रूप से पुरुषों से आगे निकल जाती हैं। ’ हो सकता है कि पेरू के प्रख्यात लेखक और वर्ष 2010 के साहित्य श्रेणी के नोबेल पुरस्कार विजेता मारिओ वर्गास लोसा का यह कथन कुछ लोगों को अतिरंजित अथवा हकीकत से परे लग रहा हो। इसका कारण यह है कि भारतीय समाज की बुनावट पेरू से सर्वथा भिन्न है। शैक्षिक ही नहीं अगर हम आर्थिक दृष्टिकोण से भी देखें, तो दोनों समाजों के बीच काफी अंतर देखा जा सकता है। लेकिन जब हम मुद्रित साहित्य की दुनिया से निकलकर ऑनलाइन दुनिया में आते हैं, तो मारिओ के इस कथन का मतलब साफ-साफ समझ में आता है। 21 अप्रैल 2003 को आलोक कुमार द्वारा ‘ नौ दो ग्यारह ’ नाम से हिन्दी का पहला ब्लॉग बनाए जाने के बाद से भले ही किसी और ने इसकी उपयोगिता को समझा हो अथवा नहीं, महिला लेखिकाओं ने इसकी पहुँच को समझने और उसे ...