पुष्परंजन
रूस और अमेरिका एक दूसरे के दोस्त बन रहे हैं। बोस्टन में दो धमाकों, दो मौत, और दर्जन भर लोगों के घायल होने के बाद आतंकवाद का गुब्बारा इतना फूला कि दो चिर शत्रु बगलगीर हो रहे हैं। विश्वास नहीं होता। लेकिन जब पश्चिम के विश्लेषक कुछ कह रहे होते हैं, तो दुनिया गंभीरता से सोचती है, कि शायद कुछ ऐसा हो। अमेरिका के इस बंदरगाह शहर बोस्टन का मेयार ही कुछ ऐसा है कि छोटी-सी बात बड़ी हो जाती है। बचपन में हम ‘बोस्टन की टी पार्टी’ रटा करते थे। मैसाच्यूसेट्स के कुछ देशभक्तों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की चाय की ‘मोनोपोली’ के विरोध में 16 दिसंबर, 1773 को तीन जहाजों पर छापा मारा और चाय के तीन सौ बयालीस डिब्बों को समंदर में फेंक दिया था।
दो सौ चालीस साल के बाद बोस्टन एक बार फिर चर्चा में है। लेकिन चाय के लिए नहीं, बमबारी के विरुद्ध और रूस-अमेरिका के बीच दोस्ती के वास्ते। पिछले शुक्रवार रात को वाइट हाउस की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि राष्ट्रपति ओबामा ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से फोन पर बात की और आतंकवाद समाप्त करने की दिशा में रूसी सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। वाइट हाउस के अनुसार, दोनों नेताओं ने आतंकवाद के समूल नाश का संकल्प किया है। दुनिया भर में अमन-चैन पसंद करने वालों के लिए यह एक अच्छी खबर है।
लेकिन शुक्रवार को ही अमेरिकी विदेश विभाग ने वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया कि पुतिन के चुनाव में जम कर धांधली की गई थी। रूस ने हिसाब बराबर करने में देर नहीं की। चौबीस घंटे बाद रूसी सरकारी टीवी ने चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव की मां का इंटरव्यू प्रसारित किया, जिसमें उसने आरोप लगाया कि बोस्टन बमकांड में उसके बेटों को फंसाया गया है। एक ही पल में मुहब्बत और अदावत का ऐसा उदाहरण अमेरिका-रूस संबंधों में ही मिल सकता है।
बोस्टन मैराथन के दौरान विस्फोट करने के शक में जिस चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव को अमेरिकी पुलिस ने गोलियों से उड़ा दिया था, उस पर नजर रखने के लिए दो साल पहले रूसी खुफिया एजेंसी ने एफबीआइ को सूचना दी थी। छब्बीस साल का चेचन युवक तामेरलान त्सारनेव अमेरिका में ही पढ़ाई कर रहा था। बमबारी में सहयोग करने के आरोप में उसका छोटा भाई जोखर त्सारनेव एफबीआइ के हत्थे चढ़ गया है। एफबीआइ के प्रवक्ता ने स्वीकार किया कि मारे गए चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव के बारे में ‘फॉरेन गवर्नमेंट’ की तरफ से सूचना मिली थी। अमेरिका में रूस के लिए फॉरेन गवर्नमेंट शब्द का प्रयोग वैसा ही है, जैसे हम पाकिस्तान के संदर्भ में ‘सीमापार’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
एफबीआइ प्रवक्ता के अनुसार, ‘हमने उसके सफर के रिकार्ड, इंटरनेट की गतिविधियां और उससे मिलने-जुलने वाले लोगों को खंगाला। तब उसके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं मिला।’ अब प्रश्न यह उठता है कि क्या बोस्टन विस्फोट को हम अमेरिकी खुफिया की विफलता कहें? कहना भी चाहिए। क्योंकि वे स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने ‘फॉरेन गवर्नमेंट’ की सूचनाओं के बावजूद इसकी ठीक से तहकीकात नहीं की थी। अगर एफबीआइ की छानबीन में ये चेचन छात्र साफ-सुथरे थे, तो यह भी संभव है कि उन्हें बलि का बकरा बनाया गया हो। इसलिए बोस्टन विस्फोट पर जांच प्रक्रिया जब तक समाप्त नहीं हो जाती, किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।
चेचन अतिवादियों को लेकर पहली बार अमेरिका और रूस एक साथ चिंतित दिख रहे हैं। क्या इसके पीछे 2014 की अफगान रणनीति है? क्या अमेरिका एक नई रणनीति की ओर अग्रसर नहीं हो रहा है, जिसमें अफगानिस्तान के मोर्चे पर रूस का वह सीधा सहयोग ले सके? उसकी वजह रूस की भू-सामरिक स्थिति है। अफगानिस्तान में तैनात नाटो और ‘आइएसएएफ’ सैनिकों के लिए रसद और दूसरी सैन्य सामग्री कराची से चमन और तोर्खम होते हुए पहुंचती है।
इसे दक्षिणी रूट के नाम से जाना जाता है। नवंबर 2011 में चौबीस सैनिकों की मौत के बाद पाकिस्तान ने इसी मार्ग को सात महीनों के लिए बंद किया था, जिससे अमेरिका के पसीने छूट गए थे। तब रूस ही अमेरिकी सैनिकों के काम आया था। रूस ‘नार्दर्न डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क’ को नियंत्रित करता है, जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान से लगी उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं हैं। उत्तर में तुर्कमेनिस्तान समेत ये तीनों देश रूस की शर्तों पर ही अफगानिस्तान में रसद भेजने का रास्ता देते रहे। अफगानिस्तान की पूर्वी सीमा पर चीन है और पश्चिम से लगा ईरान है। साफ है कि अफगानिस्तान में किसी भी बहुराष्ट्रीय सेना को लंबे समय तक टिकने के लिए रूस की मदद चाहिए।
बोस्टन विस्फोट से अमेरिका को सबक यही मिला है कि चेचन अतिवादी, अलकायदा की राह पर हैं। अमेरिका को चिंता इस बात की सता रही है कि फिर कोई ‘भस्मासुर’ उसके पीछे न पड़ जाए। सारी दुनिया जानती है कि तालिबान, अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों और इनके नेताओं को तैयार करने वाला अमेरिका था।
उसके पीछे 1980 से 1989 के बीच अमेरिका की अफगानिस्तान से रूसियों को भगाने की रणनीति थी। लेकिन उसके साथ-साथ एक और अतिवादी गुट को अमेरिका ने तैयार किया था, वे थे चेचन। चेचन अतिवादी आरंभ से ही रूसी गणराज्य के विरुद्ध बंदूक ताने खड़े रहे। उनका एकमात्र उद््देश्य यूरोप और एशिया से लगे कॉकासश पर्वत के पूरे इलाके में इस्लामी गणराज्य स्थापित करना रहा है।
चेचन्या, दक्षिण में जार्जिया को छोड़ कर बाकी तीन
रूस और अमेरिका एक दूसरे के दोस्त बन रहे हैं। बोस्टन में दो धमाकों, दो मौत, और दर्जन भर लोगों के घायल होने के बाद आतंकवाद का गुब्बारा इतना फूला कि दो चिर शत्रु बगलगीर हो रहे हैं। विश्वास नहीं होता। लेकिन जब पश्चिम के विश्लेषक कुछ कह रहे होते हैं, तो दुनिया गंभीरता से सोचती है, कि शायद कुछ ऐसा हो। अमेरिका के इस बंदरगाह शहर बोस्टन का मेयार ही कुछ ऐसा है कि छोटी-सी बात बड़ी हो जाती है। बचपन में हम ‘बोस्टन की टी पार्टी’ रटा करते थे। मैसाच्यूसेट्स के कुछ देशभक्तों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की चाय की ‘मोनोपोली’ के विरोध में 16 दिसंबर, 1773 को तीन जहाजों पर छापा मारा और चाय के तीन सौ बयालीस डिब्बों को समंदर में फेंक दिया था।
दो सौ चालीस साल के बाद बोस्टन एक बार फिर चर्चा में है। लेकिन चाय के लिए नहीं, बमबारी के विरुद्ध और रूस-अमेरिका के बीच दोस्ती के वास्ते। पिछले शुक्रवार रात को वाइट हाउस की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि राष्ट्रपति ओबामा ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से फोन पर बात की और आतंकवाद समाप्त करने की दिशा में रूसी सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। वाइट हाउस के अनुसार, दोनों नेताओं ने आतंकवाद के समूल नाश का संकल्प किया है। दुनिया भर में अमन-चैन पसंद करने वालों के लिए यह एक अच्छी खबर है।
लेकिन शुक्रवार को ही अमेरिकी विदेश विभाग ने वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया कि पुतिन के चुनाव में जम कर धांधली की गई थी। रूस ने हिसाब बराबर करने में देर नहीं की। चौबीस घंटे बाद रूसी सरकारी टीवी ने चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव की मां का इंटरव्यू प्रसारित किया, जिसमें उसने आरोप लगाया कि बोस्टन बमकांड में उसके बेटों को फंसाया गया है। एक ही पल में मुहब्बत और अदावत का ऐसा उदाहरण अमेरिका-रूस संबंधों में ही मिल सकता है।
बोस्टन मैराथन के दौरान विस्फोट करने के शक में जिस चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव को अमेरिकी पुलिस ने गोलियों से उड़ा दिया था, उस पर नजर रखने के लिए दो साल पहले रूसी खुफिया एजेंसी ने एफबीआइ को सूचना दी थी। छब्बीस साल का चेचन युवक तामेरलान त्सारनेव अमेरिका में ही पढ़ाई कर रहा था। बमबारी में सहयोग करने के आरोप में उसका छोटा भाई जोखर त्सारनेव एफबीआइ के हत्थे चढ़ गया है। एफबीआइ के प्रवक्ता ने स्वीकार किया कि मारे गए चेचन छात्र तामेरलान त्सारनेव के बारे में ‘फॉरेन गवर्नमेंट’ की तरफ से सूचना मिली थी। अमेरिका में रूस के लिए फॉरेन गवर्नमेंट शब्द का प्रयोग वैसा ही है, जैसे हम पाकिस्तान के संदर्भ में ‘सीमापार’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
एफबीआइ प्रवक्ता के अनुसार, ‘हमने उसके सफर के रिकार्ड, इंटरनेट की गतिविधियां और उससे मिलने-जुलने वाले लोगों को खंगाला। तब उसके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं मिला।’ अब प्रश्न यह उठता है कि क्या बोस्टन विस्फोट को हम अमेरिकी खुफिया की विफलता कहें? कहना भी चाहिए। क्योंकि वे स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने ‘फॉरेन गवर्नमेंट’ की सूचनाओं के बावजूद इसकी ठीक से तहकीकात नहीं की थी। अगर एफबीआइ की छानबीन में ये चेचन छात्र साफ-सुथरे थे, तो यह भी संभव है कि उन्हें बलि का बकरा बनाया गया हो। इसलिए बोस्टन विस्फोट पर जांच प्रक्रिया जब तक समाप्त नहीं हो जाती, किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।
चेचन अतिवादियों को लेकर पहली बार अमेरिका और रूस एक साथ चिंतित दिख रहे हैं। क्या इसके पीछे 2014 की अफगान रणनीति है? क्या अमेरिका एक नई रणनीति की ओर अग्रसर नहीं हो रहा है, जिसमें अफगानिस्तान के मोर्चे पर रूस का वह सीधा सहयोग ले सके? उसकी वजह रूस की भू-सामरिक स्थिति है। अफगानिस्तान में तैनात नाटो और ‘आइएसएएफ’ सैनिकों के लिए रसद और दूसरी सैन्य सामग्री कराची से चमन और तोर्खम होते हुए पहुंचती है।
इसे दक्षिणी रूट के नाम से जाना जाता है। नवंबर 2011 में चौबीस सैनिकों की मौत के बाद पाकिस्तान ने इसी मार्ग को सात महीनों के लिए बंद किया था, जिससे अमेरिका के पसीने छूट गए थे। तब रूस ही अमेरिकी सैनिकों के काम आया था। रूस ‘नार्दर्न डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क’ को नियंत्रित करता है, जिसके अंतर्गत अफगानिस्तान से लगी उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान की सीमाएं हैं। उत्तर में तुर्कमेनिस्तान समेत ये तीनों देश रूस की शर्तों पर ही अफगानिस्तान में रसद भेजने का रास्ता देते रहे। अफगानिस्तान की पूर्वी सीमा पर चीन है और पश्चिम से लगा ईरान है। साफ है कि अफगानिस्तान में किसी भी बहुराष्ट्रीय सेना को लंबे समय तक टिकने के लिए रूस की मदद चाहिए।
बोस्टन विस्फोट से अमेरिका को सबक यही मिला है कि चेचन अतिवादी, अलकायदा की राह पर हैं। अमेरिका को चिंता इस बात की सता रही है कि फिर कोई ‘भस्मासुर’ उसके पीछे न पड़ जाए। सारी दुनिया जानती है कि तालिबान, अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों और इनके नेताओं को तैयार करने वाला अमेरिका था।
उसके पीछे 1980 से 1989 के बीच अमेरिका की अफगानिस्तान से रूसियों को भगाने की रणनीति थी। लेकिन उसके साथ-साथ एक और अतिवादी गुट को अमेरिका ने तैयार किया था, वे थे चेचन। चेचन अतिवादी आरंभ से ही रूसी गणराज्य के विरुद्ध बंदूक ताने खड़े रहे। उनका एकमात्र उद््देश्य यूरोप और एशिया से लगे कॉकासश पर्वत के पूरे इलाके में इस्लामी गणराज्य स्थापित करना रहा है।
चेचन्या, दक्षिण में जार्जिया को छोड़ कर बाकी तीन
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद चेचन्या आजाद हुआ। लेकिन चेचन अपनी ही जमीन पर रूस की कठपुतली सरकार के खिलाफ लड़ते रहे। 1994 में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने चेचन क्षेत्र में विद्रोह को दबाने के लिए सैनिक उतारे। दो वर्ष तक चली लड़ाई में कोई अस्सी हजार चेचन नागरिक मारे गए। 1999 में एक बार फिर दागिस्तान में चेचन लड़ाकों से रूसी फौजी भिड़े। 2009 में अंतत: युद्ध विराम हुआ, और चेचन्या में क्रेमलिन की जी-हुजूरी करने वाली रमाजान कादिरोव की सरकार बनी।
वर्ष 2004 में ब्रिटेन से प्रकाशित अखबार ‘गार्डियन’ में ‘द चेचंस, अमेरिकन फ्रेंड’ शीर्षक से एक लेख छपा। इसके लेखक जॉन लाफलैंड ने विस्तार से जिक्र किया था कि चेचन अतिवादियों को पालने-पोसने में ‘अमेरिकन कमेटी फॉर पीस इन चेचन्या’ (एसीपीसी) की कितनी बड़ी भूमिका रही है। एसीपीसी ने चेचन अतिवादियों के बीच कितने लाख डॉलर बांटे थे, इसके बारे में भी लेखक लाफलैंड ने जानकारी दी थी। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के कुछेक बड़े नाम उससे भी पहले उछले थे, जिन्होंने चेचन लड़ाकों को फंडिंग के बहाने बाहर के बैंकों में लाखों डॉलर जमा किए थे।
इस लेख से पहले ऐसे कई पुख्ता दस्तावेज सरकारें साझा करती रहीं, जिनमें इसका जिक्र था कि चेचन अतिवाद को आगे बढ़ाने में तुर्की और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियां मदद करती रही हैं। तुर्की एक तरफ काकॉसश में इस्लाम की मजबूती चाहता है, दूसरी ओर ब्रिटेन है, जिसे अमेरिका से दोस्ती निभानी है। इसलिए ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देश जब इस्लाम को खतरा मानते हैं, तो उन्हें याद दिलाने के लिए चेचन अतिवाद से बढ़िया कोई उदाहरण नहीं है, जिसे उन्होंने कूटनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया।
खैर, यह नौ साल पुरानी बात थी। पिछले हफ्ते बोस्टन में बमबारी करने वाले जिन मृत और जीवित चेचन भाइयों के बारे में अमेरिकी पुलिस जांच कर रही है, उनकी बाबत एक अहम संकेत यह भी मिला है कि चेचन अतिवादियों का एक ‘वहाबी सेल’ इस शहर में सक्रिय था, जिसे आर्थिक मदद सऊदी अरब से मिलती है। वहाबी और देवबंदी मत को मानने वाले चेचन कट््टरपंथियों को समय-समय पर अफगानिस्तान-पाकिस्तान के आतंकी शिविरों में तालिबान, सिपाहे-साहिबा, अलकायदा, अहलुस सुन्ना वल जमा (एएसडब्ल्यूजे) के सदस्यों से मिलवाया जाता था, यह बात अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियां भी मानती हैं। लेकिन इस समय अमेरिकी खुफिया एजेंसियां पूरी जिम्मेदारी के साथ यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि बोस्टन पर हमले की जानकारी सऊदी अरब को पहले से थी।
रूस, अमेरिका से दोस्ती इस वास्ते भी चाहता है, ताकि अफगास्तिान में चेचन दहशतगर्दों का गढ़ ध्वस्त किया जा सके। अफगानिस्तान में चेचन अतिवादियों की मदद के लिए कुख्यात इब्न अल खताब का 2002 में मारे जाने से पहले बड़ा नाम था। इब्न अल खताब से अफगानिस्तान मिलने आने वालों में ‘शामिल बासायेव’ का जिक्र सिर्फ चेचन नेटवर्क के संदर्भ में किया जा रहा है। शामिल बासायेव को 2002 में दुनिया तब जान पाई, जब उसने मास्को थिएटर में अपहरण कांड को अंजाम दिया था, जिसमें एक सौ बीस लोग मारे गए थे। दुनिया के इस ‘मोस्ट वांटेड’ चेचन आतंकवादी की 2006 में एक विस्फोट में मौत हो गई। यह अब भी विवादित है कि बासावेय को रूसी खुफिया (फेडरल सिक्योरिटी सर्विस) के जासूसों ने मारा था, या वह दुर्घटनावश मौत का शिकार हुआ था।
इस सबके बावजूद चेचन अतिवादी समाप्त नहीं हुए हैं। तीन साल पहले मास्को मेट्रो में विस्फोट कर उन्होंने चालीस लोगों को मार डाला था। इसके अगले साल दोमोदेदोवो हवाई अड््डे पर मानव-बम हमले ने पैंतीस लोगों की जान ली थी। अब तक खैरियत वाली बात थी कि चेचन अतिवादी रूस की हदों तक बड़े कांडों को अंजाम दे रहे थे।
अब इनका विस्तार हो रहा है। यह भी संभव है कि चेचन अतिवादी अमेरिका से नाराज चल रहे हों और एक चेतावनी के रूप में बोस्टन कांड को अंजाम दिया हो। अमेरिका आतंकवाद की परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है। ईरान से लेकर दागिस्तान तक जो आतंकी गुट अमेरिका विरोधियों को निपटा रहा है, वह ‘भला अतिवादी’ है, और जो उसके खिलाफ विध्वंसकारी गतिविधियों में शामिल है, वह ‘बुरा अतिवादी’ है। रूस के लिए भी आतंकवादियों को मापने का यही पैमाना है। ऐसे अतिवादियों को पालने-पोसने वालों को क्या कहा जाए? क्या सचमुच रूस, अमेरिका और दुनिया के दूसरे दबंग देश आतंकवाद की समाप्ति चाहते हैं? साभार ; जनसत्ता
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