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अरुणिमा
दो साल पहले एक चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिए जाने के बाद अरुणिमा के बाएँ पाँव को काटना पड़ा था
“मैंने अपने कटे पैर को ताकत बनाया. मेरी ज़िद थी कि मैं अपने लिए सबसे मुश्किल काम चुनूँगी.”
ये हैं 26 वर्षीय अरुणिमा सिन्हा जो 21 मई को क्लिक करेंहिमालय की चोटी पर पाँव रखने वाली दुनिया की पहली शारीरिक रूप से अक्षम महिला बनीं और गुरूवार को दिल्ली पहुँचीं.
दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में अरुणिमा की आवाज़ में झलकते विश्वास से सभी अचंभित थे. पत्रकारों की भीड़ और कैमरों की फ्लैशलाइटों के बीच वो बेहद सहज थीं और कई लोगों के लिए ये बेहद आश्चर्य का कारण था.
सिर्फ़ दो साल पहले ही एक चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिए जाने के बाद उनके बाएँ पाँव को काटना पड़ा था और दाहिने पाँव में एक छड़ लगानी पड़ी थी. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी अरुणिमा ने खुद को कमज़ोर नहीं होने दिया. अपने लिए उन्होंने दुनिया का सबसे मुश्किल काम चुनने की ठानी.
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, “हर कोई मुझे बेचारगी की नज़रों से देखता था कि मेरा क्या होगा. मैंने सोचा कि कुछ ऐसा करूँ जिससे मेरे जैसे दूसरे लोगों को प्रेरणा मिले.”
साढ़े चार महीने दिल्ली के एम्स अस्पताल में बिताने के बाद अरुणिमा ने बाहर निकलकर सबसे पहले क्लिक करेंहिमालय की चोटी पर पहुँचने वाली पहली भारतीय महिला बचेंद्री पाल को फ़ोन लगाया.
वो बचेंद्री पाल को निजी तौर पर नहीं जानती थीं और उन्होंने बचेंद्री पाल के बारे में अपनी स्कूल की किताबों में पढ़ा था.

"हिमालय की चोटी पर पहुँचकर यही मन कर रहा था कि इतनी ज़ोर से चिल्लाऊँ कि सारी दुनिया को बता दूँ कि मैं आज दुनिया के सबसे ऊँचे स्थान पर हूँ"

मेहनत


अरुणिमा सिन्हा
बचेंद्री पाल के साथ की गई एक साल की कड़ी ट्रेनिंग और 52 दिनों की खतरनाक यात्रा के बाद आखिरकार अरुणिमा ने 8,848 मीटर ऊँची क्लिक करेंचोटी पर पहुँचकर अपनी ज़िद पूरी की.
नीले टॉप और काली पैंट पहने हुए अरुणिमा को देखकर ऐसा लगता नहीं था कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सबसे मुश्किल दिनों को इतनी जल्दी पीछे छोड़ते हुए दुनिया की ऊँचाइयों को छुआ है. उनकी आवाज़ में इतना जोश और सच्चाई थी कि कभी-कभी ऐसा महसूस हुआ कि उनका आँखों से आँसू निकल पड़ेंगे.
वो हाथों को हिलाकर अपनी बात रखती थीं, जैसे सभी को विश्वास दिला रही हों कि उनके हर शब्द में सच्चाई है. उनके साथ के लोग उन्हें बेहद मज़बूत और निडर महिला बताते हैं जिसमें कुछ भी कर जाने की हिम्मत है.
अरुणिमा क्रिकेटर युवराज सिंह को भी प्रेरणास्रोत मानती हैं जिन्होंने कैंसर जैसी बीमारी को ज़िंदगी पर हावी नहीं होने दिया.
“हिमालय की चोटी पर पहुँचकर यही मन कर रहा था कि इतनी ज़ोर से चिल्लाऊँ और सारी दुनिया को बता दूँ कि मैं आज दुनिया के सबसे ऊँचे स्थान पर हूँ. उस क्षण को मैने अपने दिलो-दिमाग में बिठा रखा है. अगर मुझे पेंटिंग आती तो मैं उसे कैनवस पर उतारने की कोशिश करती.”
यह कहकर एक सेकेंड के विराम के बाद अरुणिमा खिलखिलाते हुए कहती हैं, “हाँ, मैं चिल्लाई लेकिन मेरे अंदर बहुत शक्ति नहीं बची थी.”

दुर्घटना

अरुणिमा
पत्रकारों से बातचीत के दौरान अरुणिमा आत्मविश्वास से भरी थीं
दो साल पहले राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा ट्रेन से लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं. हालाँकि वो गले में सोना नहीं पहनती थीं, लेकिन उस दिन उन्होंने सोने की चेन पहनी हुई थी. कुछ बदमाशों ने लोगों को डरा धमकाकर लूटना शूरू किया. सभी ने डरकर उन्हें अपना पैसा, गहना सौंप दिया लेकिन अरुणिमा ने चेन देने से मना कर दिया.
नाराज़ बदमाशों ने अरुणिमा को चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया. तभी पटरी से दूसरी तरफ़ से एक और गाड़ी आ रही थी, और वो गाड़ी अरुणिमा के पाँव के ऊपर से निकल गई.
पुलिस ने इसे आत्महत्या की कोशिश, या फिर बिना टिकट पकड़े जाने की कोशिश भी बताया, लेकिन अरुणिमा इससे इंकार करती हैं.
उन्हें पाँव और कमर में गहरी चोटें आईं और उनकी जान बचाने के लिए डॉक्टरों को उनका बांया पाँव काटना पड़ा.
लेकिन चाहे ट्रेनिंग या फिर हिमालय की चोटी पर चढ़ना, अरुणिमा को हर कदम बढ़ाने के लिए दूसरे “नॉर्मल” लोगों की अपेक्षा ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत होती थी.
हिमालय की चोटी की ओर जाते वक्त एक बार तो मुश्किलें इतनी बढ़ीं कि उनकी टीम प्रमुख ने वॉकी-टॉकी पर उन्हें वापस आने की भी सलाह दी, लेकिन अरुणिमा वापस नहीं आईं.
चोटी से वापस लौटते हुए उनके शरीर में गर्मी इतनी बढ़ गई थी कि ऐसा लगा कि उनका नकली पैर पसीने के कारण फिसलकर बाहर आ जाएगा, लेकिन वो उसे घसीटते हुए नीचे कैंप तक पहुँचीं.
"मैं अपनी अकादमी में ज़रूरतमंद बच्चों को मुफ़्त में प्रशिक्षण देना चाहती हूँ"
अरुणिमा

भविष्य


भविष्य के बारे में अरुणिमा कहती हैं कि वो बच्चों के लिए उन्नाव में एक खेल अकादमी की शुरुआत करना चाहती हैं.
वो इस अकादमी के माध्यम से गरीब और विकलांग बच्चों को खेल में हिस्सा लेने में मदद करना चाहती हैं.

वो कहती हैं, “निशानेबाज़ी जैसे खेल में बंदूक और गोलियों की कीमत बहुत ज़्यादा होती है कि आम बच्चा ऐसे खेल में हिस्सा नहीं ले सकता. मैं अपनी अकादमी में ज़रूरतमंद बच्चों को मुफ़्त में प्रशिक्षण देना चाहती हूँ.”

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