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haribans sahab ke lekh

प्रभात खबर से साभार
21 अक्टोबर 2012

नयी जाति की पहचान

।।समय से संवाद।।
।।हरिवंश।।
एक उल्लेखनीय काम के लिए अरविंद केजरीवाल को क्रेडिट (श्रेय) मिलना चाहिए. पर भारतीय राजनीति या सार्वजनिक बहस में यह मुद्दा है ही नहीं. लालू प्रसाद का बयान (गडकरी पर अरविंद केजरीवाल की प्रेस कान्फ्रेंस के बाद) आया कि सब दलों को मिल कर केजरीवाल को जेल में डाल देना चाहिए. मुलायम सिंह यादव भी, सलमान खुर्शीद और नितिन गडकरी के पक्ष में खड़े हो गये हैं. तीन दिनों पहले उन्होंने लखनऊ में फरमाया, इनको (केजरीवाल समूह) ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है. बोलते-बोलते ये थक जायेंगे. चुप हो जायेंगे. खुर्शीद और गडकरी पर लगे आरोपों के बारे में नेताजी (मुलायम सिंह को उनके समर्थकों ने यही उपाधि दी है) का निष्कर्ष था कि उनके खिलाफ केजरीवाल द्वारा लगाये गये आरोप सच से परे हैं. एकांगी हैं. देश के कानून मंत्री खुर्शीद, केजरीवाल एंड कंपनी को अपने संसदीय क्षेत्र (फरूखाबाद) में आने की धमकी देते हैं, सड़क छाप भाषा में. पर उस पर कोई बड़ा नेता आपत्ति नहीं करता?
इसी पृष्ठभूमि में याद रखिए कि मुलायम सिंह के परिवार और मायावती के खिलाफ बेशुमार निजी संपत्ति बनाने के मामले भी हैं. सुप्रीम कोर्ट तक ये मामले गये हैं. दिल्ली के जानकार कहते हैं कि इन दोनों के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले को कांग्रेस होशियारी से इस्तेमाल करती है. समय-समय पर. मसलन हाल में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि मायावती की आय से अधिक संपत्ति के मामले की सीबीआइ चाहे, तो जांच कर सकती है. इस फैसले के चंद दिनों बाद ही मायावती की पार्टी ने फैसला किया कि उनका दल, असहमत होते हुए भी केंद्र सरकार को समर्थन देगा. अब इन दोनों तथ्यों को जोड़ कर तरह-तरह के कयास, अर्थ लगाये जा रहे हैं. पर यह अलग मामला है. राबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों पर भी सभी दलों का लगभग यही आचरण, रवैया या रुख रहा. गडकरी के बचाव में मुलायम सिंह या लालू यादव या अन्य धुर भाजपा विरोधी? क्यों? वाड्रा से लेकर सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों के मामले में केजरीवाल के खिलाफ लगभग सभी दल-नेता एकजुट क्यों?
केजरीवाल ने साबित कर दिया है कि कमोबेश सारे दलों के नेता एक आधार पर या भूमि या जमीन या मंच पर खड़े हैं. दरअसल समाजशास्त्री की भाषा में कहें, तो यह नया वर्ग है. नयी जाति है. देश में जो पुराने राजा-रजवाड़े, रईस, जमींदार या सामंत होते थे, उनकी जगह इस लोकतांत्रिक पद्धति के गर्भ से एक नयी जाति जन्मी है. यह राजनीतिक शासक वर्ग (रूलिंग इलीट) है. इसमें पक्ष-विपक्ष और भूतपूर्व सभी हैं. आजादी के बाद ही इसका जन्म हुआ. पहले जन्म या जन्मना, जाति-वंश के आधार पर लोग विशिष्ट बनते थे. अब इन्हीं शासकों-वर्गो के घरों मे जन्मे लोग देश के भावी नेता हैं. विशिष्ट और खास हैं. पुरानी जातियां टूट रही हैं, नयी जाति जन्म ले रही है. किसी बड़े नेता के घर जन्म लेने का सौभाग्य पाइए, सत्ता आपको उत्तराधिकार में मिलेगी. नेहरू परिवार के वंशवाद के खिलाफ, लोहिया जी व उनकी पार्टी आजीवन लड़े.
अब लोहिया जी के शिष्य इसी वंशवाद को पालने-पोसने और पुष्पित करने में लगे हैं. राजशाही में क्या था? राजा का बेटा, भले ही वह घोर अयोग्य-अकर्मण्य हो, पर राज वही चलायेगा. यही हाल आज है. मार्क्सवादी अवधारणा में वर्गहित सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. यानी वर्गो के हित-स्वार्थ समान होते हैं. इस कसौटी पर इन नेताओं की नयी जाति या वर्ग को परखिए. इनके वर्गहित-स्वार्थ समान हैं. विधायकों-सांसदों का वेतन बढ़ाना हो, पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए आजीवन बंगले या सुविधाएं दिलानी हों, ऐसे अनंत सवालों पर सभी नेता या दल, विचार, दुश्मनी छोड़ कर एक साथ मिलेंगे. अपवाद हैं, पर बेअसर. राजनेताओं की इस नयी जाति में हर धर्म-जाति, संप्रदाय या क्षेत्र के लोग हैं. यह नयी भारतीय शासक जाति है. इस नयी राजनीतिक जगत की खूबसूरती भी है. पहले जातियां, क्षेत्रों में सिमटी थीं. इनका अखिल भारतीय रूप या चेहरा या दायरा नहीं था. तमिलनाडु में करुणानिधि कुनबा या महाराष्ट्र में ठाकरे या पवार कुनबा या यूपी में मुलायम कुनबा .. हर दल में यह दृश्य है. कांग्रेस ने युवा वर्ग को बढ़ाने के नाम पर किन युवाओं को मंत्री बनाया, अधिसंख्य वही, जिनके पिता कांग्रेस के बड़े नेता थे. इन सबके घोषित वर्ग हित तो एकसमान हैं ही, उससे भी अधिक इनके अघोषित वर्गहित हैं, जो इनकी एकता के कारण हैं. इस नयी जाति या वर्ग या समूह के अघोषित वर्गहितों को केजरीवाल व उनके साथियों ने उजागर करना शुरू किया है. इसलिए सब बौखलाये भी हैं. एकजुट भी हैं. जाति, धर्म, क्षेत्र, विचार के हर बाड़ को तोड़ कर एक स्वर में बोल रहे हैं ‘केजरीवाल को जेल में डालो.’
वाड्रा या सलमान खुर्शीद के खिलाफ लगे आरोप गंभीर हैं, पर नितिन गडकरी के खिलाफ लगे आरोप उतने संगीन-साफ नहीं हैं. पर नितिन गडकरी के आरोपों से अन्य गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं, जो वाड्रा-सलमान खुर्शीद से अलग हैं. अत्यंत गंभीर और नैतिक. भारत के बड़े राजनीतिक दल (जो खुद को कांग्रेस का विकल्प मानता है) का अध्यक्ष पूंजीपति या उद्यमी होना चाहिए या दीनदयाल उपाध्याय की परंपरा का? इसका यह अर्थ नहीं कि उद्यमी, पूंजीपति या बड़े लोग राजनीति के शीर्ष पर न जायें?
इस देश में स्वतंत्र पार्टी थी. उसकी विचारधारा, नीति और लक्ष्य साफ थे. उस दल में एक से एक पैसेवाले रहे, पर उनकी निष्ठा, सिद्धांत, आदर्श को मुल्क ने सम्मान दिया. यह भी संभव है कि पैसेवालों में जमनालाल बजाज जैसे लोग हों, ऐजिंल्स जैसे लोग हों, जो गरीबों के उत्थान की नीति को मानते हों. सैद्धांतिक कारणों से पैसेवाले होते हुए भी ऐसे लोग, समतावादी, अर्थनीति के सिद्धांत के पक्ष में खड़े हुए. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. अगर गडकरी जी पूंजीपति होते हुए भी ऐंजिल्स या जमनालाल बजाज की परंपरा के इंसान हैं, गरीबों के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता से राजनीति में उतरे हैं, तब कोई सवाल नहीं उठना चाहिए? पर अगर उनकी पहचान ऐसी नहीं है, तो सवाल उठने ही चाहिए. भाजपा के अध्यक्ष अमीर हैं, तो गरीबों के प्रति, सामाजिक समता के प्रति उनकी भूमिका ईमानदार रहेगी? राजनीति में आने के पहले वह उद्योगपति थे या राजनीति में उदय के बाद वह उद्योगपति हुए, यह भी सवाल है?
आज पूरी दुनिया में सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है, आर्थिक विषमता का. द इकानामिस्ट (19 अक्तूबर’12) पत्रिका क ी विश्व अर्थव्यवस्था पर विशेष रिपोर्ट में माना गया है कि आर्थिक विषमता ही आज दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती है. इस पत्रिका के अनुसार भारत में आर्थिक विषमता बहुत बढ़ी है. इसके अमीरों के अमीर होने की गति या रफ्तार बहुत तेज है. शिकागो विश्वविद्यालय के दुनिया में मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन (जो हाल में भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार बनाये गये) ने कहा है कि अर्थव्यवस्था के अनुपात में भारत में दूसरे नंबर पर दुनिया के सबसे संपन्न बिलेनियर (अरबपति) हैं, रूस की अर्थव्यवस्था केअनुपात में. इस विश्वविख्यात अर्थशास्त्री के इस निष्कर्ष का मूल कारण है कि भारत के बिलेनियरों (अरबपतियों) को आसानी से सरकारी जमीन, सरकारी संसाधन और सरकारी ठेके मिल जाते हैं. रघुराम राजन की चिंता है कि भारत एक विषम, कुलीनतंत्र या गुटतंत्र या बदतर (अनइक्वल ओलिगारकी आर वर्स) हाल में तो नहीं जा रहा? जिस मुल्क में ऐसे गंभीर सवाल हों, वहां गडकरी की पृष्ठभूमि के नेता किस नीति पर चलेंगे? वे वर्गहित की बात सोचेंगे, समाजहित की बात सोचेंगे या निजीहित की बात सोचेंगे. यह साफ -साफ समझ लीजिए कि यह मसला सिर्फ गडकरी तक ही नहीं है, यह तो एक संकेत है कि हर दल में अरबपति-करोड़पति सांसदों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. पूरी संसद में अरबपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही है, इसलिए हर दल से पूछना चाहिए कि ऐसी पृष्ठभूमि के आपके नेता अपने युग के सबसे गंभीर सवाल, आर्थिक विषमता पर किधर खड़े होंगे? जनता के पक्ष में या अलग-अलग पृष्ठभूमि, विचारधारा दल में होते हुए भी अपने वर्गहित में एक साथ खड़े होंगे, जैसा आज है.
इन दलों के वर्गहित ही समान नहीं हैं. इनकी चाल-ढाल लगभग एक जैसी है. इनकी अंदरूनी व्यवस्था देखिए. जेपी और आचार्य कृपलानी कहा करते थे कि जिन दलों के अंदर लोकतंत्र नहीं है, वे देश के लोकतंत्र के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? दल के अंदर तानाशाही (या आलाकमान) और देश के लोकतंत्र की बागडोर के सूत्रधार! दोनों भूमिकाएं एक ही प्रवृत्ति के मानस और विचार का एक ही नेता कैसे कर सकता है? ये अंतर्विरोधी भूमिकाएं हैं. इसी देश में कांग्रेस समेत सभी दलों के अंदर पहले प्राथमिक सदस्यों की भरती होती थी, वे नेता चुनते थे, कार्यकारिणी सदस्य चुनते थे, अध्यक्ष चुनते थे. वे चुने पार्टी कार्यकर्ता, दलों के वार्षिक सम्मेलनों (जो हर वर्ष नियमित होते थे) में घरेलू नीति, विदेशनीति, अर्थनीति वगैरह तय करते थे. दलों के सत्ता में आने के पहले ही उनकी नीतियां साफ, घोषित और सार्वजनिक होती थीं. सरकार में बैठ कर अचानक नयी नीति घोषित नहीं होती थी. क्यों कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, राजद वगैरह सभी इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था या संस्कृति पर नहीं चल रहे हैं?
दरअसल भारत की राजनीतिक व्यवस्था में जो संस्कृति विकसित हुई है, उसने लगभग सभी दलों को एक नयी संस्कृति, आचार-विचार और स्वरूप दिया है. इस राजनीतिक संस्कृति के विकल्प में, देश बदलने के लिए एक नयी राजनीतिक संस्कृति चाहिए, जो गांधी के विचारों के अनुरूप हो, उनके आर्थिक सिद्धांतों के मानक पर चले. अगर एक दूसरे के खिलाफ हो रहे आरोपों के विस्फोट में यह नयी संस्कृति जनमी, तो इस देश का कल्याण होगा. वरना महज धोतीखोल अभियान (जो फिलहाल चल रहा है), उससे देश का और नाश होगा. केजरीवाल, दामनिया वगैरह नेताओं पर कुछ और आरोप लगायें, मुंबई से वाइपी सिंह कुछ और बोलें, हर नेता को हम नंगा कर दें, पर विकल्प न गढ़ें, तो इस व्यवस्था की बची-खुची साख का क्या होगा? चर्चिल ने कहा था कि आजादी के 50 वर्ष गुजर जाने दीजिए, आजादी के बड़े नेताओं को इस दुनिया से विदा हो जाने दीजिए, फिर भारत का हाल देखिए. चर्चिल ने अत्यंत कठोर, गंदे शब्द इस्तेमाल किये कि किस तरह के गंदे, अराजक, देशतोड़क, अयोग्य, भ्रष्ट और अपराधिक रुझान के नेता भारत में आयेंगे और देश बिखरेगा? हम वही दृश्य साकार कर रहे हैं. इसलिए जरूरी है कि हर संघर्ष के गर्भ से एक सृजन का विश्वसनीय, बेहतर और कारगर राजनीतिक माहौल उभरे.

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