रविवार से साभार
अन्ना समूह की राजनीतिक तैयारियां जोरो पर हैं. 2 अक्टूबर को राजनीतिक दल की घोषणा हो जाएगी. अरविंद केजरीवाल दल के संचालन की बारीकियों को मूर्त रूप देने के लिए विभिन्न विकल्पों का अध्ययन कर रहे हैं तथा लोगों के सुझाव ले रहे हैं. बहुत जल्द हमारे बीच एक नया दल नई उम्मीदों के साथ आ जाएगा.
विकल्प की जरूरत तो अब सब महसूस कर रहे हैं. मनमोहन सिंह, कांग्रेस और कुछ हद तक भाजपा भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं. मनमोहन सिंह ने सोचा भी नहीं होगा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार सफलतापूर्वक चलाने के बाद दूसरी पारी में उनकी इतनी छीछालेदर होगी, किंतु इस हालत के लिए वह खुद ही जिम्मेदार हैं. अब तो उन्हें समझ में आ ही गया होगा कि सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ईमानदार रहना काफी नहीं है. उन्होंने अपनी जानकारी में जो भ्रष्टाचार होने दिया, उसके लिए भी वह ही जिम्मेदार माने जाएंगे. उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाईं जिनसे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला. वह प्रधानमंत्री व अर्थशास्त्री दोनों रूपों में पूरी तरह असफल रहे.
देश राजनीतिक विकल्प ढूंढ़ रहा है. यदि अरविंद केजरीवाल अपनी योजना को अमलीजामा पहना पाए तो उनकी सफलता में संदेह नहीं. भारत में आजादी के बाद दो बार लोगों ने जाति या अन्य किसी संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही एकदम नए दलों को सत्ता में पहुंचाया है. यह बात दूसरी है कि सत्ता पाने के बाद ये प्रयोग बिखर गए.
असल में पूर्व के दोनों अवसरों पर स्थापित राजनीतिक दलों से ही जो राजनेता निकल कर आए थे, उन्होंने प्रयोग को पलीता लगा दिया. अरविंद को इसके प्रति सजग रहना पड़ेगा. यदि वह एकदम नए लोगों को उम्मीदवार के रूप में उतारते हैं तो बाद वाली दिक्कत को कुछ हद तक संभाला जा सकता है.
प्रशांत भूषण को छोड़कर अन्ना समूह का वैचारिक पक्ष बहुत मजबूत नहीं रहा है. प्रशांत भूषण का जनांदोलनों से पुराना रिश्ता रहा है. इस समूह में और कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो पूरे विश्वास के साथ सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मुद्दे पर स्पष्टता से अपनी राय रख सके. प्रशांत भूषण ने जन आंदोलनों के लिए सिर्फ मुकदमे ही नहीं लड़े हैं, उनका आंदोलनों के साथ जीवंत रिश्ता भी रहा है और वह आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं.
योगेंद्र यादव का इस समूह के साथ जुड़ना शुभ संकेत है, क्योंकि वह अपने साथ राजनीतिक परिपक्वता और अनुभव लेकर आएंगे. योगेंद्र चूंकि समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे हैं, इसलिए उनकी सोच व्यापक समाज के हित में होगी. अभी तक इस आंदोलन की शहरी-भ्रष्टाचार केंद्रित एकांगी छवि को और व्यापक बनाने का महत्वपूर्ण कार्य योगेंद्र यादव करेंगे.
26 अगस्त, 2012 को कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले को लेकर भाजपा को भी निशाने पर लेने की वजह से किरण बेदी का आंदोलन से मोहभंग हो गया है. वैसे भी जबसे उनके खिलाफ अनियमितताओं के मामले सामने आए हैं तबसे उनकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो गई है. उनका आंदोलन से दूर रहना ही बेहतर है अन्यथा बाद में उनकी वजह से और दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. किरण बेदी की तरह ही हिंदुत्ववादी तत्व भी अब आंदोलन से दूर हो रहा है.
जुलाई-अगस्त, 2012 के अरविंद केजरीवाल-अन्ना हजारे के अनशन में भीड़ कम होने पर कुछ लोग चिंतित दिखाई पड़े थे, किंतु देश के धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए यह एक शुभ संकेत था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब आंदोलन से बाहर हो रहा है. जब संघ ने देखा कि मजबूत लोकपाल कानून न बन पाने के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के खिलाफ भी उतना ही कठोर रुख अपना लिया जितना कांग्रेस के खिलाफ अपनाया हुआ था, तो उसने केजरीवाल एंड कंपनी से कन्नी काट ली. उसकी अगले आम चुनाव में अन्ना के आंदोलन को भाजपा के पक्ष में भुनाने की उम्मीद टूट गई. इतना ही नहीं संघ को यह भी समझ में आ गया कि यदि अरविंद केजरीवाल की पार्टी चुनाव लड़ती है तो कांग्रेस से ज्यादा वह भाजपा को नुकसान पहुंचाएगी.
भाजपा के भी अनेक नेताओं के घोटालों में लिप्त होने से लोगों ने समझ लिया है कि भ्रष्टाचार के मामले में वह कांग्रेस से अलग नहीं है. इसके विपरीत बाबा रामदेव के भाजपा या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की गोद में जाकर बैठ जाने से उनकी विश्वसनीयता को ठेस पहुंची है.
राजनीतिक दल की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस अन्ना और अरविंद की सोच के अंतर को उनके बीच बढ़ती हुई दूरी के रूप में दिखाने को प्रयासरत है. खबर यह भी है कि अन्ना हजारे एक अलग समूह के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाएंगे और अरविंद केजरीवाल राजनीतिक दल संचालित करेंगे. किन्तु अन्ना-अरविंद एक जोड़ी के रूप में ही प्रभावी रहे हैं. अन्ना की निष्कलंक छवि व अरविंद की जबरदस्त प्रबंधन क्षमता ने ही इस आंदोलन को सफल बनाया है. अत: दोनों पृथक होकर सफल नहीं हो सकते. अरविंद के राजनीतिक प्रयोग को अन्ना का समर्थन प्राप्त रहेगा और अन्ना के किसी भी आंदोलन में अरविंद की सक्रिय भूमिका रहेगी.
जिस तरह आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी संघर्ष के मुख्य प्रतीक थे और नेहरू पृष्ठभूमि में और आजादी मिलने के साथ गांधी पृष्ठभूमि में चले गए और नेहरू ने नेतृत्व संभाल लिया, ठीक उसी तरह आंदोलन के दौर में अन्ना की भूमिका प्रमुख रही, लेकिन राजनीतिक दल का नेतृत्व अरविंद संभालेंगे. देश को इस प्रयोग से बहुत उम्मीदें हैं.
नये प्रयोग की प्रतीक्षा
संदीप पांडेय
अन्ना समूह की राजनीतिक तैयारियां जोरो पर हैं. 2 अक्टूबर को राजनीतिक दल की घोषणा हो जाएगी. अरविंद केजरीवाल दल के संचालन की बारीकियों को मूर्त रूप देने के लिए विभिन्न विकल्पों का अध्ययन कर रहे हैं तथा लोगों के सुझाव ले रहे हैं. बहुत जल्द हमारे बीच एक नया दल नई उम्मीदों के साथ आ जाएगा.
विकल्प की जरूरत तो अब सब महसूस कर रहे हैं. मनमोहन सिंह, कांग्रेस और कुछ हद तक भाजपा भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं. मनमोहन सिंह ने सोचा भी नहीं होगा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली सरकार सफलतापूर्वक चलाने के बाद दूसरी पारी में उनकी इतनी छीछालेदर होगी, किंतु इस हालत के लिए वह खुद ही जिम्मेदार हैं. अब तो उन्हें समझ में आ ही गया होगा कि सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ईमानदार रहना काफी नहीं है. उन्होंने अपनी जानकारी में जो भ्रष्टाचार होने दिया, उसके लिए भी वह ही जिम्मेदार माने जाएंगे. उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाईं जिनसे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला. वह प्रधानमंत्री व अर्थशास्त्री दोनों रूपों में पूरी तरह असफल रहे.
देश राजनीतिक विकल्प ढूंढ़ रहा है. यदि अरविंद केजरीवाल अपनी योजना को अमलीजामा पहना पाए तो उनकी सफलता में संदेह नहीं. भारत में आजादी के बाद दो बार लोगों ने जाति या अन्य किसी संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही एकदम नए दलों को सत्ता में पहुंचाया है. यह बात दूसरी है कि सत्ता पाने के बाद ये प्रयोग बिखर गए.
असल में पूर्व के दोनों अवसरों पर स्थापित राजनीतिक दलों से ही जो राजनेता निकल कर आए थे, उन्होंने प्रयोग को पलीता लगा दिया. अरविंद को इसके प्रति सजग रहना पड़ेगा. यदि वह एकदम नए लोगों को उम्मीदवार के रूप में उतारते हैं तो बाद वाली दिक्कत को कुछ हद तक संभाला जा सकता है.
प्रशांत भूषण को छोड़कर अन्ना समूह का वैचारिक पक्ष बहुत मजबूत नहीं रहा है. प्रशांत भूषण का जनांदोलनों से पुराना रिश्ता रहा है. इस समूह में और कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो पूरे विश्वास के साथ सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मुद्दे पर स्पष्टता से अपनी राय रख सके. प्रशांत भूषण ने जन आंदोलनों के लिए सिर्फ मुकदमे ही नहीं लड़े हैं, उनका आंदोलनों के साथ जीवंत रिश्ता भी रहा है और वह आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं.
योगेंद्र यादव का इस समूह के साथ जुड़ना शुभ संकेत है, क्योंकि वह अपने साथ राजनीतिक परिपक्वता और अनुभव लेकर आएंगे. योगेंद्र चूंकि समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे हैं, इसलिए उनकी सोच व्यापक समाज के हित में होगी. अभी तक इस आंदोलन की शहरी-भ्रष्टाचार केंद्रित एकांगी छवि को और व्यापक बनाने का महत्वपूर्ण कार्य योगेंद्र यादव करेंगे.
26 अगस्त, 2012 को कोयला ब्लॉक आवंटन के मामले को लेकर भाजपा को भी निशाने पर लेने की वजह से किरण बेदी का आंदोलन से मोहभंग हो गया है. वैसे भी जबसे उनके खिलाफ अनियमितताओं के मामले सामने आए हैं तबसे उनकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो गई है. उनका आंदोलन से दूर रहना ही बेहतर है अन्यथा बाद में उनकी वजह से और दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. किरण बेदी की तरह ही हिंदुत्ववादी तत्व भी अब आंदोलन से दूर हो रहा है.
जुलाई-अगस्त, 2012 के अरविंद केजरीवाल-अन्ना हजारे के अनशन में भीड़ कम होने पर कुछ लोग चिंतित दिखाई पड़े थे, किंतु देश के धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए यह एक शुभ संकेत था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब आंदोलन से बाहर हो रहा है. जब संघ ने देखा कि मजबूत लोकपाल कानून न बन पाने के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा के खिलाफ भी उतना ही कठोर रुख अपना लिया जितना कांग्रेस के खिलाफ अपनाया हुआ था, तो उसने केजरीवाल एंड कंपनी से कन्नी काट ली. उसकी अगले आम चुनाव में अन्ना के आंदोलन को भाजपा के पक्ष में भुनाने की उम्मीद टूट गई. इतना ही नहीं संघ को यह भी समझ में आ गया कि यदि अरविंद केजरीवाल की पार्टी चुनाव लड़ती है तो कांग्रेस से ज्यादा वह भाजपा को नुकसान पहुंचाएगी.
भाजपा के भी अनेक नेताओं के घोटालों में लिप्त होने से लोगों ने समझ लिया है कि भ्रष्टाचार के मामले में वह कांग्रेस से अलग नहीं है. इसके विपरीत बाबा रामदेव के भाजपा या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की गोद में जाकर बैठ जाने से उनकी विश्वसनीयता को ठेस पहुंची है.
राजनीतिक दल की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस अन्ना और अरविंद की सोच के अंतर को उनके बीच बढ़ती हुई दूरी के रूप में दिखाने को प्रयासरत है. खबर यह भी है कि अन्ना हजारे एक अलग समूह के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाएंगे और अरविंद केजरीवाल राजनीतिक दल संचालित करेंगे. किन्तु अन्ना-अरविंद एक जोड़ी के रूप में ही प्रभावी रहे हैं. अन्ना की निष्कलंक छवि व अरविंद की जबरदस्त प्रबंधन क्षमता ने ही इस आंदोलन को सफल बनाया है. अत: दोनों पृथक होकर सफल नहीं हो सकते. अरविंद के राजनीतिक प्रयोग को अन्ना का समर्थन प्राप्त रहेगा और अन्ना के किसी भी आंदोलन में अरविंद की सक्रिय भूमिका रहेगी.
जिस तरह आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी संघर्ष के मुख्य प्रतीक थे और नेहरू पृष्ठभूमि में और आजादी मिलने के साथ गांधी पृष्ठभूमि में चले गए और नेहरू ने नेतृत्व संभाल लिया, ठीक उसी तरह आंदोलन के दौर में अन्ना की भूमिका प्रमुख रही, लेकिन राजनीतिक दल का नेतृत्व अरविंद संभालेंगे. देश को इस प्रयोग से बहुत उम्मीदें हैं.
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