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अनिता गौतमजी का यह आलेख
 उनके साईट तेवर ऑनलाइन से साभार लिया गया है .
आज जहां विश्व पटल पर दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पत्ति वाले कण की खोज कर भगवान के करीब पहुंचने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक पिछड़ेपन के शिकार लोग आस्था के नाम पर अंधविश्वास के अंधे कुएं से बाहर नहीं आना चाहते।
विकास के कितने भी दावे कर लिए जायें पर हकीकत आज भी वही है कि शिक्षा और ज्ञान की कमी से जूझ रहे लोगों में अंधविश्वास जड़ तक समाया हुआ है। आस्था और अंधविश्वास की फेहरिस्त में हर तरह के लोग शामिल हैं पर महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा शिकार हैं। इन्हें अपने दुखों को कम करने का आसान, सस्ता और सटीक तरीका बाबा और भूत झाड़ने वाले ओझा के सुझाए रास्ते लगते हैं। इसी का फायदा उठाकर नित नये-नये बाबा अवतरित हो रहे हैं। यदि यह कहें कि समाज में बढ़ रहे अपराधों में इनका बहुत बड़ा योगदान हैं तो गलत नहीं होगा।
आस्था के नाम पर पीड़ितों की फेहरिस्त  हर बार लंबी होती जाती है। पीड़ित महिलाओं की मानसिक स्थिति का मनोवैज्ञानिक अवलोकन कर ये तथाकथित बाबा झाड़-फूंक के बाद भूत भगाने या किसी भी समस्या का समाधान सुझाने के लिए आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण तक करने से परहेज नहीं करते। अपनी भाव-भंगिमा और भय का वातावरण बना कर  धीरे-धीरे अंधविश्वास का जाल फैलाना, धर्म के नाम पर हर तरह की तकलीफों से  निजात दिलाने का ठेका इन बाबाओं का हथियार बनता है।
चूंकि इन मान्यताओं और अंधविश्वास की सर्वाधिक शिकार ज्यादातर महिलायें होती हैं और इन्हें बहलाना फुसलाना भी आसान होता। अत: महिलाओं की यह कमजोरी बाबाओं की अय्याशी के रूप में भी कई बार सामने आ चुकी है। हैरानी की बात यह है कि इन सब के बाद भी इनका कारोबार बेधड़क चलता रहता है।
बाबाओं का निशाना संभ्रांत परिवार की ऐसी महिलायें बनती हैं जिनसे पैसे भी आसानी से ऐंठे जा सकें और सभ्य होने के नाम पर उनकी पोल खुलने का खतरा भी कम हो।
अलग अलग समस्याओं से निबटने में जब घरेलू स्तर पर या फिर वैज्ञानिक तरीके से इंसान असफल होता है तो एक आखिरी आस के रूप में ये बाबा सहारा बनते हैं। निराकरण और समस्याएं कुछ ऐसी होती हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है।
आखिर किस सदी में जी रहे हैं हम?  किसी को बेटा नहीं हो रहा है, किसी का पति शादी के बाद परदेश चला गया है या फिर शादी में बार-बार रूकावटें आ रही हैं- यही होती हैं इनकी समस्याएं। पुलिस प्रशासन भी इन सवालों पर मौन होता या फिर जब तक कोई बड़ी घटना न हो इसमें दखल देना उचित नहीं समझता।
आस्था व अंधविश्वास के बीच के अंतर को समझाना नामुमकिन नहीं है पर गहरी चिन्ता का विषय यह है कि इन मुद्दों पर सहयोग करने वालों से किस तरह से सख्ती से निपटा जाये ? अज्ञानी और मानसिक रोगी होने के प्रमाण होते हैं इस तरह से सार्वजनिक स्थलों पर भूत-प्रेतों को लेकर खेलने व झूमने वाले लोग। मनोचिकित्सकों और विशेषज्ञों की मानें तो पूरी तरह अंधविश्वास और मानसिक रोगों का परिचायक है इस तरह की घटना। इससे रोग तो कतई नहीं दूर हो सकता और न  ही किसी नि:संतान को संतान प्राप्त हो सकती है।
अंधविश्वास के चक्कर में लोगों का पूजा-पाठ और आस्था के नाम पर भूखे रहना-तमाम तरह की बीमारियों को आमंत्रण देना है। कभी कभी खतरा बढ़ने पर मौत का भी सबब बन जाता है यह अंधविश्वास का खेल। संतान प्राप्ति तो पूरी तरह एक वैज्ञानिक या प्रकृति  प्रदत्त प्रक्रिया है इसमें बाबा का दखल यानि वासना का खेल और समाज में गलत संदेश के आदान प्रदान के अलावा कुछ नहीं है।
बहरहाल, विज्ञान की नित नई खोजों के बीच अंधविश्वास के प्रति बढ़ रहा आस्था का यह खेल कई सवालों को जन्म दे रहा है। सही ज्ञान और आस्था के नाम पर अंधविश्वास को ही बढ़ावा मिल रहा इस तरह के कुकृत्यों से।

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