75 फ़ीसदी बिहारी बच्चे नहीं पढ पाते 12वीं तक की पढाई
अखबारों और बड़े-बड़े होर्डिंगों में स्कूल जाती लड़कियों की तस्वीरें दिखाकर बिहार सरकार ने यह स्थापित करने में सफ़लता हासिल कर लिया है कि उसने शिक्षा के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। सरकारी दावों में यह भी कहा जाता है कि सुशासन बाबू के कार्यकाल में शतप्रतिशत नामांकन में सफ़लता हासिल कर ली गयी है। आंकड़ों के खेल में खुद को बाजीगर साबित करने के लिये राज्य सरकार की ओर से इस तरह के अनेक आंकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसा ही एक आंकड़ा है ड्राप आऊट रेट का। सरकार का कहना है कि उसने ड्राप आऊट रेट को 50 फ़ीसदी तक कम करने में सफ़लता हासिल कर ली है।
लेकिन सरकारी आंकड़े ही इस तथ्य को जगजाहिर कर रहे हैं कि आज भी 75 फ़ीसदी बिहारी छात्र/छात्रायें 12वीं के बाद अपनी पढाई लिखाई बंद कर देते हैं। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक यह कि इस मामले में लड़कियां लड़कों से अधिक संवेदनशील हैं। इकोनामिक सर्वे 2011-12 की रिपोर्ट में सरकार ने जो आंकड़े प्रस्तुत किये हैं, उसके हिसाब से 76.3 फ़ीसदी लड़के 12वीं तक आते-आते अपनी पढाई बंद कर देते हैं, वही लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम है। केवल 73.4 फ़ीसदी लड़कियां ही अपना पढाई बंद करती हैं।
सरकारी दावों के उलट एक आंकड़ा यह भी है कि 68.8 फ़ीसदी बच्चे मैट्रिक के पहले ही अपनी पढाई बंद कर देते हैं और इस मामले में लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम है। मतलब यह कि मैट्रिक के पहले पढाई बंद करने वाले लड़कों की प्रतिशत हिस्सेदारी 69.9 फ़ीसदी और लड़कियों की हिस्सेदारी केवल 67 फ़ीसदी। पढाई के प्रति संवेदनशीलता के मामले में लड़कियों का प्रदर्शन अपर प्राइमरी यानि सातवें वर्ग तक की श्रेणी में भी बेहतर दिखता है। 60.2 फ़ीसदी लड़कों के मुकाबले लड़कियों का ड्राप आऊट रेट करीब 4 फ़ीसदी कम 56 फ़ीसदी है। जबकि प्राइमरी क्लास की श्रेणी में सरकार का कहना है कि वर्ष 2001-02 में 61.6 फ़ीसदी बच्चे अपनी पढाई बंद कर देते थे, वही वर्ष 2009-10 में यह घटकर केवल 42.5 फ़ीसदी हो गयी।
अब इस आंकड़े को ठेठ लिहाज से समझें तो यदि 100 बच्चे प्राइमरी में अपना नामांकन कराते हैं तो पांचवीं तक आते-आते 42.5 फ़ीसदी बच्चे पढाई से अलग हो जाते हैं। शेष जो बच्चे बच जाते हैं उनमें से करीब 60 फ़ीसदी बच्चे सातवीं तक आते-आते अपने हाथ खड़े कर देते हैं। इसके बाद केवल 32.2 फ़ीसदी बच्चे ही मैट्रिक तक की पढाई पूरी कर पाते हैं। इससे भी बड़ी सच्चाई यह कि जो बच्चे बच जाते हैं उसमें से 75 फ़ीसदी बच्चे 12वीं के पहले ही पढाई बंद कर देते हैं।
यह आंकड़ा यह बतलाने के लिये काफ़ी है कि सरकारी दावों की असलियत क्या है? यह इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। प्रति वर्ग छात्रों और शिक्षकों के घनत्व के मामले में बिहार का स्थान भले ही सबसे आगे हो, लेकिन शर्मनाक है। विकसित राज्यों में जहां प्रति वर्ग 30-40 बच्चे होते हैं, वही बिहार में यह घनत्व बढकर 70-80 है। शिक्षकों की कमी वाली सच्चाई तो जगजाहिर है। सवाल यह है कि आखिर बिहार सरकार इन सुविधाओं को बढाने की दिशा में क्या कर रही है? क्या सरकार के पास कोई ठोस रणनीति है?
बिहारी के अधिकांश सरकारी विद्यालयों में हकीकत में शौचालय की समुचित व्यवस्था बहाल नहीं है। ऐसे में लड़कियों के लिये पढाई जारी रखना सबसे कठिन होता है। इसके अलावे बिहार में ऐसे स्कूलों की भरमार है जहां केवल दो कमरों में ही वर्ग एक से लेकर 8वीं तक की पढाई करायी जाती है।
वैसे एक बात जो सरकार बार-बार कहती है कि उसके पास शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के लिये पैसे नहीं है, एकदम से बेमानी प्रतीत होती है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह कि जो सरकार बिहार दिवस के नाम पर बच्चों की शिक्षा के पैसे अपना चेहरा चमकाने में खर्च करे, उसके द्वारा यह कहा जाना कि उसके पास पैसे का अभाव है, निश्चित तौर पर सरकार की स्थिति को हास्यास्पद बना देती है।
क्रेडिट आलोक कुमार पटना
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