कलाकार और बलात्कार
आज वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने जनसत्ता में तरुण तेजपाल प्रकरण के बहाने लेख लिखा है. उनके तर्क गौर करने लायक हैं-
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तरुण तेजपाल को मैं कलाकार मानता हूँ – अभिधा और व्यंजना, दोनों स्तरों पर। व्यंग्यार्थ को छोड़िए, क्योंकि इस अर्थ में बहुत-से लोग आ जाएँगे – सुनार से पाकेटमार तक। कलाकार ये सब भी हैं, लेकिन गलत काम करनेवाले। सही अर्थों में कलाकार वे हैं जो अपनी कला से समाज का भला करते हैं। जैसे प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, रविशंकर और एमएफ हुसेन। कोई बढ़ई या दर्जी भी कलाकार हो सकता है। पत्रकारिता भी कला है और तरुण तेजपाल हमारे समय के उल्लेखनीय कलाकारों में एक हैं। और लोग खबर लिखते हैं, तरुण खबर पैदा करते हैं। उनके काटे हुए कई लोग आज भी बिलबिला रहे हैं।
फिर तरुण ने ऐसा क्यों किया? मुझे लगता है कि जिस केस की चर्चा हो रही है, वह यौन शोषण या उत्पीड़न के ग्लेशियर की सिर्फ ऊपरी परत है। भीतर कुरेदेंगे, तो ‘किस्से अरबों हैं’। काश, किसी अन्य खोजी पत्रकार ने तरुण का स्टिंग ऑपरेशन किया होता। लेकिन चोर के घर चोरी कौन करे। यह भी कम सच नहीं है कि मीडिया में तरुन के पर्यायवाची दो-चार नहीं,अनेक हैं। कुछ को पकड़ लिया गया तो उन्हें निकाल दिया गया। बाकियों को कंपनी की सुरक्षा मिली हुई है। अगर पत्रकार अच्छा या प्रभावशाली है, तो मालिक लोग उसके गैर-पत्रकारीय पहलुओं से आँख मूँद लेते हैं। इधर ‘व्यक्तिगत मामला’ या ‘निजी’ जीवन नामक खतरनाक जुमला चलन में आया है। कोई पहाड़ का प्रेमी है और किसी को समुद्र आकर्षित करता है तो यह व्यक्तिगत अभिरुचि का मामला है, मगर कोई अपनी पत्नी को पीटता है या किसी लड़की का आपत्तिजनक वीडियो बनाता है, तो यह किस तर्क से व्यक्तिगत मामला है? दुष्यंत कुमार का शेर हैं – मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
प्रस्तुत प्रसंग में एक नाम लेने लायक है - रोमन पोलांस्की। इन्होंने एक से एक अच्छी फिल्में बनाई हैं। जैसे चित्र कला में पिकासो, वैसे ही फिल्म कला में पोलांस्की। पोलांस्की पर आरोप है कि उन्होंने 1977 में अमेरिका में एक तेरह साल की लड़की से बलात्कार किया था। उन पर केस चला और जिस दिन सजा सुनाई जानेवाली थी, उसके पहले ही वे भाग निकले और फ्रांस में जा कर शरण ली। फ्रांस और अमेरिका में यह संधि नहीं है कि एक देश के अभियुक्त को दूसरे देश में भेजना होगा। स्विट्जरलैंड में दो महीने का कारावास भुगतने के बाद से वे फ्रांस में हैं और अमेरिकी पुलिस के लिए भगोड़े हैं। अमेरिका के हाथ आ जाएँ, तो उन पर फिर मुकदमा शुरू हो जाएगा।
दिनकर ने ‘उर्वशी’ में कल्पना की है कि देवता सिर्फ सूँघ कर तृप्त हो जाते हैं, जब कि आदमी भोगना भी चाहता है। देवताओं के बारे में मुझे न तो फर्स्ट-हैंड जानकारी है न सेकंड-हैंड। यह जरूर पता है कि आदमियों में ही कुछ देवता ऐसे होते हैं जिनके लिए स्त्री-गंध ही काफी है। हिंदी में कम से कम दो लेखक ऐसे थे जिनके लिए किसी का स्त्रीलिंग होना पर्याप्त था। कुछ ऐसे भी हैं जो गंध की परिसीमा तक सिमटे रहना नहीं जानते। वे बलात्कार नहीं करते, स्त्रियों का शिकार करते हैं। जरूरत खत्म हो जाने के बाद वे इस्तेमाल किए हुए कंडोम की तरह फेंक देते हैं।
ऐसा क्यों होता है? खासकर जो समाज द्वारा सम्मानित हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं?
तरुण तेजपाल के बारे में बताया जाता है कि वे अपनी पत्रकारिता में स्त्री अधिकारों की खूब वकालत करते रहे हैं। मानव अधिकारों का उल्लंघन उन्हें विचलित कर देता था। हिंदी के जिन लेखकों की मैंने चर्चा की है, वे भी स्त्री के मुद्दे को बहुत महत्व देते हैं, एक की तो यह पहचान ही है। सुधीर कक्कड़ ने महात्मा गांधी की यौनिकता का अच्छा विश्लेषण किया है। दरअसल, हर मशहूर व्यक्ति को एक फ्रायड चाहिए। हमारे यहाँ भी इस समस्या पर विचार हुआ है। एक सूक्ति में कहा गया है कि जिस प्रकार किसी युवती के यौवन का लाभ उसके पिता को नहीं, उसके पति को मिलता है, उसी तरह किसी रचना के लेखन का लाभ उसे नहीं, उसके पाठकों को मिलता है। अर्थात कोई बहुत बड़ा लेखक या कलाकार है, तो उसके पाठकों और दर्शकों का नैतिक और भावनात्मक उन्नयन होता है, पर हो सकता है कि वह लेखक या कलाकार अपनी ही रचना से कुछ न सीखे। चरित्र और रचना में द्वैध नहीं होना चाहिए, आदर्श तो यही है, पर रूसो जैसा महान क्रांतिकारी बहुगामी हो, तो क्या निष्कर्ष निकाला जाए? शायद इसीलिए कहा गया है कि कलाकार को मत देखो, कला को देखो। कलाकार मर जाता है, कला जिंदा रहती है।
लेकिन अदालत में किसी की कलात्मक ऊँचाई पर विचार नहीं किया जाता, उस आदमी के आचरण और दंड विधान की धाराओं के बीच संबंध की जाँच की जाती है। मैं किसी पागलखाने में भेजने का सुझाव भी दे सकता था, पर पागलखानाओं पर मुझे विश्वास नहीं है। jankipul se ....
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