बाल साहित्य के सजग सैनिक को शोकाकुल पाठक की भावभीनी श्रद्धांजलि!
प्रसिद्ध बाल-कथा लेखक हरिकृष्ण देवसरे का निधन हो गया. वे 'पराग' के संपादक थे. ऐसा लगा जैसे हमारी बचपन की स्मृतियों का एक स्थायी कोना खाली हो गया हो. उनके अवदान को याद करते हुए लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने बहुत अच्छा लेख लिखा है. इस लेख के साथ देवसरे जी को बिनम्र श्रद्धांजलि-
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आर. के. नारायण ने किसी साक्षात्कार में कहा था कि किसी अच्छे पाठक को लेखक से नहीं मिलना चाहिए। इसका कारण यह कि लेखक/ कवि का श्रेष्ठ अस्तित्व उसके कविता, कहानियों में पहले ही दिख चुका होता है. उसके बाद उनसे मिलना, नितांत निराशाजनक होता है।हालाँकि मुझे इन बातों का अभिमान है कि मैंने क्या और कितना कुछ पढ़ा है, क्योंकि पढ़ना और समझना कर्म है, पर लिखना कुछ हद तक प्राकृतिक गुण। इस अभिमान के कारण उन सभी लेखकों से एक अनकहा, अनजाना जुड़ाव है। मेरा मत है कि ऐसे जुड़ाव का प्रमाण मिलने की उत्कंठा में नहीं,विचार- आचरण और व्यव्हार के शुभ स्वरुप में होना चाहिए। ऐसे ही विचारों से मैंने कभी कन्हैयालाल नंदन, हरिकृष्ण देवसरे और उन जैसे कितने लेखकों से मिलने की कोशिश नहीं की। कभी करूँगा भी नहीं। पर मैं हमेशा एक अच्छे बच्चे की तरह उनकी सिखायी बातें याद रखता रहा।
हम सब का बचपन! हम सब का घर! हमारे घर में थी ढेरों किताबें। उन किताबों में सिरमौर हुआ करती थी पराग … पिता जी अपने बचपन में बालक और चुन्नू-मुन्नू पढ़ते आये थे। उन्होंने अपने बच्चों के लिए अख़बार वाले से कह कर नंदन, पराग, चम्पक, बाल भारती और बालहंस मँगाना चालू कियाथे। आज भी उन सभी प्रतियों का संकलन हमारे घर में कीड़ों, दीमकों और सीलन से सुरक्षित अलमारियों में मौजूद है। हर आदमी अपने बचपन को ले कर "How Green was My Valley" जैसा संताप कर सकता है, मसलन बचपन में अच्छी बारिश होती थी। फूल सुन्दर हुआ करते थे। मौसम अच्छा हुआ करता था। चाँद धरती के करीब था और सूरज पहाड़ी के पीछे छिपा रहता था। याद किया जा सकता है कि अभिभावकों से हमने क्या सीखा, क्या भूल गए। कौन से कौन से लोग थे,क्या खेल हम खेला करते थे। हज़ारों बातों में मेरी उम्र के लोग पराग नहीं भूल सकते।
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