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आम आदमी बनाम गरीब आदमी



राहुल राजेश की वैचारिक आलेख  आम बनाम गरीब आदमी 


गरीब

जब-जब पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ती हैं, तब-तब आम आदमी मीडिया के फोकस में आ जाता है. मीडिया के रिपोर्टर पेट्रोल-पंपों पर जाकर खड़े हो जाते हैं और पेट्रोल-डीजल लेने पहुँचे हरेक वाहनधारी से उनकी प्रतिक्रिया लेने लगते हैं. फिर चीख-चीखकर कहने लगते हैं- आप देख रहे हैं, पेट्रोल-डीजल की कीमतें लगातार बढ़ने से आम आदमी को कितनी परेशानी हो रही है. ऐसा तब भी होता है जब साग-सब्जियों के दाम आसमान छूने लगते हैं. मीडिया के रिपोर्टर गृहणियों के रसोईघरों तक पहुँच जाते हैं और उनसे महँगाई के बारे में राय जानने लगते हैं. और फिर चीख-चीखकर बताने लगते हैं- आप देख रहे हैं, महँगाई की मार आम आदमी पर, उनकी थाली पर, उनके बजट पर किस तरह पड़ रही है.

पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और बढ़ती महँगाई पर इस तरह से प्रतिक्रिया लेने के ऐसे उपक्रम प्राय: महानगरों तक सीमित रहते हैं. इनका ज्यादा से ज्यादा विस्तार राँची-पटना-रायपुर जैसे शहरों तक देखा जा सकता है. लेकिन गौर करने वाली बात यहाँ यह है कि जिन लोगों से ऐसी राय ली जाती है, वे अमूमन मध्यम-वर्गीय शहरी और साधन-संपन्न लोग ही होते हैं. अब सवाल यह उठता है कि क्या बढ़ती कीमतों और चढ़ती महँगाई की कमरतोड़ मार केवल इन्हीं शहरी मध्यम-वर्गीय और साधन-संपन्न लोगों पर पड़ती है? क्या आम आदमी के दायरे में केवल मध्यम-वर्गीय लोग और मध्यम-वर्गीय परिवार ही आते हैं?

यदि ऐसा है तो यह साफ है कि मीडिया की नजर में सड़कों-फुटपाथों पर सोने वाले, पाँव-पैदल चलने वाले, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, रैन-बसेरों में रहने वाले, फटी-चिटी गुदड़ी में बरसों गुजर-बसर करने वाले, ठेले लगाकर, कचरा बीनकर, कुली-मजूरी कर, भवन-निर्माण, सड़क-निर्माण, पुल-निर्माण आदि में मजदूरी कर जीवन-यापन करने वाले लाखों-करोड़ों लोग और लाखों-करोड़ों गरीब-खेतिहर मजूर-किसान आम आदमी नहीं हैं. वरना मीडिया में इन्हें भी जगह जरूर मिलती. लेकिन पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और बढ़ती महँगाई पर ऐसे बदहाल-फटेहाल लोगों से मीडिया का कोई रिपोर्टर कभी प्रतिक्रिया लेता नजर नहीं आया.

तो क्या यह मान लिया जाए कि मीडिया की नजरों में ऐसे लाखों-करोड़ों गरीब आदमी आम आदमी नहीं हैं? तो क्या यह मान लिया जाए कि पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध समाज में भी गरीब आदमी को कोई तवज्जो और अहमियत नहीं दी जाती? तो क्या यह मान लिया जाए कि कमोबेश पूरे समाज में यह धारणा कायम कर ली गई है कि गरीब आदमी आम आदमी थोड़े ही होते हैं? और यह भी कि आम आदमी और गरीब आदमी में फर्क होता है.

जी हाँ, संभवत: ऐसा ही है. भला गरीब की सुनता कौन है? सबको तो बस आम आदमी की चिंता है. पेट्रोल की कीमत बढ़ने से गरीब आदमी पर कोई सीधा असर तो पड़ता है नहीं. न तो उसके पास दुपहिया होती है और न चारपहिया. और गरीब आदमी का क्या किचन और क्या बजट. उसे तो रोज खटना है, रोज कमाना है, रोज खाना है. आज अगर बीस रुपए किलो चावल खरीदता है, कल पच्चीस रुपए किलो चावल चुपचाप खरीद लेगा. न वह चीखता-चिल्लाता है और न ही उसकी चीख-पुकार सुनकर कोई आने वाला है. आलू भले पचास रुपए किलो हो जाए, प्याज भले नब्बे रुपए किलो हो जाए, सत्तू भले सौ रुपए किलो हो जाए, उसकी बला से. गाँठ में पैसे होंगे तो खाएगा वरना नहीं खाएगा, भूखे सो जाएगा.

और भला सत्तू-प्याज भी अब गरीब आदमी के खाने की चीज थोड़े ही रह गई. फिर कमरतोड़ महँगाई पर मीडिया उसकी राय क्यों पूछे? और अगर वह राय दे भी दे तो उसकी सुनेगा कौन? उसकी बात करेगा कौन? वह आम आदमी तो है नहीं? चर्चा-बहस-विमर्श तो आम आदमी को केंद्र में रखकर की जाती है. गरीब आदमी पर क्या बहस-विमर्श करना? उस पर बढ़ती कीमत और चढ़ती महँगाई का असर थोड़े ही न पड़ता है. अखबार, मीडिया, सरकार या फिर राजनैतिक पार्टियाँ ही क्यों न हों, सबको आम आदमी की ही चिंता है. कल तक बेचारा गरीब आदमी कम से कम चुनाव के समय वोट बैंक होने के कारण खास आदमी हो जाता था, लेकिन उसकी वह जगह भी आम आदमी ने छीन ली.

देश की सरकार ने तो योजना आयोग की रिपोर्ट के बहाने ही गरीबों को ठेंगा दिखा दिया. योजना आयोग के वर्ष 2011-12 के आँकड़ों के अनुसार गाँवों में रोजाना 27 रुपये और शहरों में 33 रुपये से कम खर्च करने वाला आदमी ही गरीब है. यानी जो लोग इससे एक रुपए भी अधिक खर्च करते हैं, वे उनकी नजर में गरीब नहीं हैं.

सरकारी हिसाब से औसतन पाँच लोगों के परिवार की मासिक आमदनी यदि ग्रामीण क्षेत्र में 4,080 रुपये और शहरी क्षेत्र में 5,000 रुपये से कम है, तो ही वह परिवार गरीब है. यानी यदि कोई इससे एक रुपया भी अधिक कमा लेता है, तो वह गरीब नहीं है. लेकिन इस कमरतोड़ महँगाई में रोज 27 रुपये या फिर 33 रुपये खर्च करके गरीब आदमी क्या खा पाता है, कितना खा पाता है, इसका किसी ने जायजा नहीं लिया. किसी ने यह जानना तक नहीं चाहा कि 27 या 33 रुपये में क्या दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करने वाला गरीब आदमी सुबह-शाम-दोपहर-रात की खुराक तो छोड़िए, दो जून की रोटी भी जुटा पाता है? हाँ, इस पर राजनैतिक बयानबाजियाँ जरूर खूब हुईं.

तब क्या यह मान लिया जाए कि पहले प्रति व्यक्ति कैलोरी की रोजाना खपत और अब रुपए के रोजाना खर्च के आधार पर गढ़े गए गरीबी के इस सरकारी पैमाने से ऊपर के सारे लोग गरीब हैं ही नहीं? और आजकल मुखर हो गई आम धारणा के मुताबिक क्या यह भी मान लिया जाए कि इस तरह निर्धारित और आँकड़ों पर आधारित इस गरीबी रेखा से ऊपर के सारे लोग आम आदमी हैं? तो क्या गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले करोड़ों-करोड़ लोग गरीब आदमी नहीं, आम आदमी हैं? क्या इतने सारे लोगों को सचमुच सम्मानजनक जिंदगी हासिल है? इन सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2004-05 से लेकर वर्ष 2011-12 तक गरीबी में 15 फीसदी की कमी आई है. यह तो हर सरकार चाहती है कि गरीब कम गरीब दिखें और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी के आँकड़ों में गिरावट ही दर्ज हो. लेकिन यह तो जगजाहिर है, अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और ज्यादा गरीब.

इन्हीं सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, देश में अब भी 27 (सत्ताईस) करोड़ लोग गरीब हैं. क्या इन 27 (सत्ताईस) करोड़ गरीबों को आम आदमी मान लिया जाए? और अगर इन्हें आम आदमी मान लिया जाए तो इनके बारे में सरकार को, मीडिया को, राजनैतिक पार्टियों को या फिर अभी-अभी दिल्ली में सरकार बनाने वाली और आम आदमी की हिमायत करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) को कोई चिंता क्यों नहीं है?

अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी वादे में कहा था कि वे दिल्ली के आम आदमी को मुफ्त पानी-मुफ्त बिजली देगी. यानी हरेक परिवार को हर दिन 700 (सात सौ) लीटर पानी मुफ्त और 50 (पचास) प्रतिशत बिजली बिल माफ. लेकिन यहाँ फिर सवाल उठ खड़ा होता है कि ये तथाकथित आम आदमी क्या वाकई गरीब आदमी ही हैं? कोई गरीब आदमी रोजाना 700 लीटर पानी भला खर्च करता है क्या? वह तो रोज सड़क पर लगे नलके या चापाकल से सुबह-शाम पाँच-दस बाल्टी पानी लाकर अपनी गृहस्थी चला लेता है. इस गरीब आदमी के पास न तो सुरसा की तरह पानी पी जाने वाली वाशिंग मशीन होती है, न ही सजा-धजा किचन और बाथरूम होता है, जहाँ चौबीस घंटे एक से अधिक नलों से पानी की आमद बनी रहती है. 

और तो और, इस गरीब आदमी के पास न तो छत्तीस या बहत्तर इंच की एलसीडी टी.वी. होती है, न ए.सी.-कूलर होता है, न मिक्सी-ग्राइंडर होता है, न माइक्रोवेव ओवन होता है, न डबल-डोर फ्रिज होता है, न रूम-हीटर होता है. फिर इनके पास बिजली की इतनी खपत कहाँ कि बिल माफ करवाने की नौबत ही आए. अधिक बिजली-पानी की खपत तो उनके यहाँ ही होती है, जिनके यहाँ इतने साजो-सामान होते हैं. गरीबों के घर में तो पानी का कनेक्शन तक नहीं है, पानी का मीटर तक नहीं है. जाहिर है, अरविंद केजरीवाल की नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी भी खाते-पीते, संपन्न मध्यम-वर्गीय लोगों को ही आम आदमी मानती है और उन्हीं को मुफ्त बिजली-पानी देने की हिमायती है. 

इस आधार पर यह भी क्यों नहीं माना जाए कि आम आदमी पार्टी भी गरीबों की हिमायती नहीं है? कहने की जरूरत नहीं कि इसी आम आदमी पार्टी के एक मजबूत किरदार कुमार विश्वास अपने अमेठी दौरे में भूतपूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल के नक्शे-कदम पर दिन में चार बार कपड़े बदलते नजर आए. जबकि बेचारा गरीब आदमी दिन में तो क्या चार दिन में भी एक बार कपड़े बदल नहीं पाता. वह तो धूप-धूल-बारिश-पसीने में कई-कई दिन तो क्या कई-कई सालों तक एक ही कपड़े में गुजर-बसर करता रहता है. आम आदमी पार्टी अपनी धुआँधार रफ्तार से बढ़ती सदस्यता और लोकप्रियता का दावा तो करती है लेकिन वह यह क्यों नहीं बताती कि इंटरनेट से अपनी सदस्यता लेने वाले तथाकथित लाखों-लाख आम आदमी वाकई गरीब आदमी नहीं हैं?

बेचारे गरीब आदमी अबतक वोट बैंक के तौर पर ही सही, पहचाने तो जाते थे, पूछे तो जाते थे, चुनाव के वक्त पूजे तो जाते थे. लेकिन जब से आम आदमी की हवा जोर-शोर से चल पड़ी है, बेचारा गरीब आदमी अपना यह बचा-खुचा अधिकार और स्थान भी खो चुका है. अब उसके पास सिवा गरीब कहलाने के, सरकारी आँकड़ों में दब-दुब जाने के, कुछ नहीं बचा. अब तो गरीबों के नाम पर चलने वाली सरकारी योजनाओं में भी गरीबों की गुंजाइश कम बच गई है. वहाँ भी उनके हक मारने और उनकी जगह हथियाने वाले बहुतेरे हैं. इसके लिए अलग से कोई उदाहरण पेश करने की जरूरत नहीं. आम आदमी को लुभाने-बाँधने के चक्कर में राजनैतिक पार्टियाँ भी गरीबों की सुध लेना भूल गई हैं. जून, 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस चुकी सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के चुनावी एजेंडों और इश्तेहारों में गरीब आदमी नहीं, आम आदमी ही छाया हुआ है.

चाहे सरकार हो, कांग्रेस हो, भाजपा हो या कोई और पार्टी, अखबारों और टी.वी. चैनलों पर आ रहे सबके चुनावी विज्ञापनों में गरीबों पर नहीं, आम आदमी पर ही जोर है. उनके विज्ञापनों की भाषा और उनमें दिखाए जा रहे लोगों पर गौर कीजिए तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि उनके अभीष्ट श्रोता-दर्शक-पाठक कौन हैं. वे चाहे जो हों, गरीब आदमी तो यकीनन नहीं ही हैं. गरीब आदमी का मेट्रो, एयरपोर्ट, एटीएम से क्या लेना-देना. उसका कट्टर, उदार या युवा सोच से क्या लेना-देना. गरीब आदमी का क्या बचपन, क्या यौवन. वह तो न तो बच्चा होता है, न युवा होता है. वह न तो हिंदू होता है, न मुसलमान होता है. वह बस और बस गरीब होता है. वह गरीब ही पैदा होता है और गरीब ही मर जाता है. उसके हाथ में न तो स्मार्टफोन होता है और न ही लैपटॉप. वह इंटरनेट, फेसबुक, ट्वीटर की डिजिटल दुनिया का भद्र नागरिक भी नहीं होता है. हाँ, वह इतने बड़े देश का बोझ ढोने वाला, इतने विशाल देश का निर्माण करने वाला चुप्पा और मेहनती नागरिक अवश्य होता है. उनका यह श्रम-अर्जित स्थान कोई नहीं छीन सकता. 

गरीब आदमी भले ही खुले में निवृत हो जाने के लिए बदनाम हो, पर वह प्रकृति और पर्यावरण को अब भी सबसे कम नुकसान पहुँचाता है. वह प्रकृति से दूर नहीं, प्रकृति के सबसे करीब रहता है. वह सड़क हो या जमीन, सबसे कम जगह घेरता है. उसके घरों से सबसे कम कचरा बाहर आता है. वह नदियों में रोज हजारों-हजार लीटर जहरीला कचरा नहीं बहाता है. वह हवा-पानी-मिट्टी को सबसे कम दूषित करता है. वह लोभ-लालच या मुनाफे की चाह में प्रकृति का निर्लज्ज दोहन नहीं करता. वह जीवन-निर्वाह मात्र के लिए जरूरी चीजें ही प्रकृति से सादर-साभार लेता है. गरीब आदमी सबसे कम रिश्वत देता है, गरीब आदमी सबसे कम कानून तोड़ता है. गरीब आदमी धर्म और ईश्वर को सबसे कम कोसता है और भगवान से सबसे कम माँगता है. वह सरकार को भी सबसे कम कोसता है और सरकार से भी सबसे कम माँगता है. गरीब आदमी की यह उदारता, यह दूरदर्शिता, यह संतोष, यह संयम किसी और में कहाँ? साभार raviwar.com  

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