आस्था बनाम सफाई
नीलम सिंह नई दिल्ली
पिछले कई सालों की तरह इस बार भी छठ पर्व के समापन पर दिल्ली में बिहार जैसी छटा दिखी। दरअसल, बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों, विशेषकर मजदूर और कमाने वाले वर्ग के व्यापक फैलाव ने अब छठ पर्व को अखिल भारतीय बना दिया है। इसमें कुछ हाथ वोट बैंक की राजनीति का भी है, जिसे लेकर कभी मुंबई तो कभी दिल्ली में बिहारी समुदाय को आईना दिखाने की कोशिश की जाती है। आजकल मुंबई और दिल्ली में यह आस्था के बहाने शक्ति-प्रदर्शन का हथियार बन रहा है। इन सबके बावजूद इस पर्व का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। आज अपने बचपन के दौर में घर में मनाए जाने वाले छठ पर्व के साथ कई बातें याद आ रही हैं। सबसे पहले एक कौतूहल कि ऐसी कौन-सी पूजा है, जिसकी तैयारी में मां इतना नियम मानती है। पूजा का सामान रखने वाले कमरे में ताला जड़ दिया जाता था। चाभी मां के पास रहती थी। कभी कुछ सामान रखने के बहाने उस कमरे में जाने की कोशिश की तो हाथ-पैर धोने और नहाने की ताकीद रहती थी। पूजा का आटा पिसाने के लिए मां खुद गेहूं धोती थी और छत पर सुखाने के लिए हमारी ड्यूटी लगती कि उसे कोई पक्षी जूठा न कर जाए। गेहूं पिसवाने के पहले इस बात का ध्यान रखा जाता था कि चक्की धुली रहे। खुद चक्की वाले भी बिना धुलाई के गेहूं पीसने से इनकार कर देते थे। इस पर्व के खरना वाले दिन की गुड़ में बनाई गई खीर का स्वाद आज भी वैसा ही बना हुआ है।
फेसबुक के जमाने में जब छोटे-बड़े सभी अंतरंग-बहिरंग क्षणों को कैद कर सार्वजनिक करने की प्रवृत्ति आम हो गई है, याद आती है मां की आदत जब वह खरना करते समय किसी को आने से मना कर देती थी। इन चीजों का अर्थ कभी जानने की कोशिश नहीं की। लेकिन आज लगता है कि यह धर्म के नितांत निजी होने की भावना का परिचायक है। इस पर्व के दौरान मां जितनी शुचिता का भाव रखती रही है, शायद उनके मन में इस पर्व के प्रति गहरी आस्था से उपजा है। आज जब प्रधानमंत्री हमसे ‘स्वच्छ भारत’ बनाने के सपने की बात करते हैं तो लगता है कि तमाम वादों, नारों और पोस्टरों के बावजूद इस लक्ष्य को बिना ‘आस्था’ के पाना संभव नहीं है।
बिहार की राजधानी पटना को हाल में ही उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने कूड़े के ढेर पर बसी राजधानी की संज्ञा दी थी। वही पटना छठ पूजा के दौरान अगर ‘चकाचक’ नजर आता है तो इसी ‘आस्था’ भाव के कारण! आज जब फेसबुक पर पोस्ट करने के लिए और अपने बॉस को रिपोर्ट भेजने के लिए हाथ में झाड़ू लिए फोटो खिंचाना फैशन बनता जा रहा है, मुझे याद आती है बिना किसी बाहरी दबाव के सड़कों को साफ करने की धुन। हम छोटे-छोटे बच्चों की जिम्मेवारी थी कि बड़ों की सहायता करें और जितना संभव हो हाथ बंटाएं। दुर्भाग्यवश यह आस्था हमारे अंत:करण का हिस्सा नहीं बनी है। इसलिए हमें अपने आसपास की गंदगी को लेकर उदासीन रहने की आदत हो गई है।
बचपन में एक और बात विचित्र लगती थी। सत्यनारायण पूजा आदि में पंडितजी ही पूजा कराते थे। लेकिन इस पर्व में जो थोड़ा-बहुत विधान होता था, मां ही निपटाती थी। यह भी एक बड़ा कारण है कि इस पर्व को लेकर समाज के सभी तबकों में एक-सा उत्साह रहता था। धर्म अपने आरंभिक स्वरूप में किस प्रकार ब्राह्मण प्रभुत्व से मुक्त रहा होगा, इसका एक आधुनिक पुरावशेष शायद छठ का पर्व है। इसी कारण इस पर्व में सिवा डूबते और उगते हुए सूर्य के अर्घ्य के अतिरिक्त कोई विधान नहीं है। यह उस आदिम सामाजिकता का प्रतिदर्श है, जिसमें पर्व-त्योहार सामाजिक मेलजोल और खानपान से जुड़े होते थे। छठ पर्व की यादों का पिटारा इस कदर फैला है कि तमाम चीजें एक साथ आ ही नहीं सकतीं। फिर भी बिना ‘ठेकुआ’ का जिक्र किए बात पूरी नहीं हो सकती। छठ पर्व और ठेकुआ एक दूसरे से अभिन्न हैं। यह प्रसाद है, खाने और खिलाने की चीज। संयोगवश मेरी आंध्र प्रदेश की एक दोस्त ने इसे नया नाम दिया था- बिहार का ‘स्वीट केक’!
खैर, पुरानेपन का समर्थक होने का खतरा उठाते हुए कहना चाहूंगी कि छठ पूजा के गीतों की स्तरीयता में भारी गिरावट आई है। शारदा सिन्हा के मधुर लोकगीतों की परंपरा पर गुड्डू रंगीला और न जाने कौन-कौन भारी पड़ रहे हैं। मुझे विंध्यवासिनी देवी के एक गीत के अलावा कोई गीत इंटरनेट पर भी नहीं मिला। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के जड़ों से कटने का सबसे सही और साधारण सर्वेक्षण है। आशा है सरकारी और निजी प्रोत्साहनों से होने वाले अखिल भारतीय या विश्व और भोजपुरी या मैथिली आदि सम्मेलनों के आयोजक इस पर कुछ ध्यान देंगे।
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