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सभी धर्मो में मनोवैज्ञानिक संघर्ष के प्रतीक हैं प्रकाश व अंधेरा

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सभी धर्मो में मनोवैज्ञानिक संघर्ष के प्रतीक हैं प्रकाश  अंधेरा
।। अनामिकाकवयित्री ।।
उत्सव का अर्थ होता है उत्कर्षएक व्यक्ति नहींपूरे समाज काउत्कर्षमैं कविता की छात्रा हूंइसलिए मुझे अपना पूरा जीवन एकअद्भुत प्रतीक व्यवस्था की तरह दिखता हैप्रकाश भी प्रतीक है औरलक्ष्मी भी प्रतीक है.
बिहार में दीपावली के एक दिन पहले स्त्रियां सवेरे जल्दी उठ जातीहैं और पूरे घर में सूप फटफटाती घूमती हैं और कहती हैंलक्ष्मी पैइसे दरिद्दर भागेहमारा समाज ऐसासमाज हैजहां दारिद्र सभी घरों से भाग नहीं पाया हैइसलिए नहीं कि लोग पुरुषार्थ नहीं करतेबल्कि इसलिए,क्योंकि हमारा समाज भेदभाव की संरचना से जकड़ा हुआ एक ऐसा समाज हैजहां सबको विकास का अवसर नहींमिल पाता.
ज्यादातर प्रदेशों के कस्बोंगांवों और महानगरों में विस्थापितबेरोजगारकई अकेली स्त्रियां और वृद्ध हैंजिनकोजीवन में विकास का अवसर समाज ने नहीं दियाउनके जीवन का दारिद्र नहीं भागाफिर भी उन्होंने संघर्ष नहींछोड़ा.
भारतीय प्रतीक व्यवस्था में धर्मअर्थकाममोक्ष इन चार पुरुषार्थो में एक अर्थ भी हैलेकिन अर्थ वहनहीं हैजो दूसरे का हक छीन कर पाया जाता हैबल्कि वह हैजो अपने पुरुषार्थ से कमाया जायेइसे कमानेके लिए अवसर होने चाहिएलेकिन हमारे समाज में  साधनों की बराबरी है अवसरों कीऐसे में लक्ष्मीकिसी-किसी के घर में अतिथि होती है.
और जहां होती है वहां कालेधन की भी प्रचुरता हो सकती हैचूंकि लक्ष्मी की सवारी उल्लू हैजिसके पास विवेकनहीं होतावह कहीं भी बैठ जाता हैऔर यहां तो हर साख पर उल्लू बैठा हैअंजाम--गुलिस्तां क्या होगा!प्रकाश और अंधेरा सभी धर्मो में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का प्रतीक हैहमारा यह संघर्ष बहुत लंबा चलनेवाला है,क्योंकि वर्गोवर्णोक्षेत्रीयताओंनस्लों और धर्मो के बीच दोस्ताना अभी बना नहीं है.
हम एक मित्रवत समाज चाहते हैं और असली दीपावली तब होगीजब ऐसा हो जायेगाप्रकाश सबके घर जायेगा.किसी से छीनी गयी नहींपुरुषार्थ से अर्जित की हुई लक्ष्मी सबके घर में होगी.
भारतीय चिंतन धारा में सत-रज-तम तीनों गुणों का सामंजस्य किया गया हैकहा जाता है कि सृष्टि चलाने केलिए ये तीनों चाहिएतामसिक गुण-जो तेल में व्यक्त होता हैराजसी गुण-जो बाती में प्रज्वलित होकर व्यक्तहोता है और सात्विक गुण-जो प्रकाश में व्यक्त होता हैइन तीनों का समीकरण-सामायोजन ही जीवन हैइसलिएदीये का स्नेहिल प्रकाश वेदों से लेकर महादेवी वर्मा की कविताओं तक फैला हुआ हैज्ञे ने भी लिखा है-यहदीप अकेला स्नेह भराइसको भी पंक्ति को दे दो. ज्ञे को लोग कहते हैं कि वे व्यक्तिवादी थेलेकिन इसकविता से स्पष्ट हो जाता है कि उनका व्यक्तिवाद भी सामाजिकता को निवेदित है.
मुझे दीप को लेकर दो उत्कट क्षण याद आते हैंदो ऐसी दीपावलियांजब दीया एकदम दूसरी तरह से जला था.पहली बार दीपावली के दिन मैं एक वर्किग वुमेन हॉस्टल में गयी थीवहां मैंने उन अकेली स्त्रियोंजिनके पासजाने को कोई घर नहीं थासे कुछ बातचीत की थीवे अकेले रह कर अपने अकेले कमरे में मोमबत्ती जलाये हुएथीं.
बाहर अंधेरा बरस रहा था और हॉस्टल की चारदीवारी के गेट पर एक नेपाली दरबान थाजो अपने लाइटर से दोमोमबत्तियां जला गया थामैं दीपावली में उन मोमबत्तियों का प्रकाश नहीं भूलतीगेट के पास ही एक चाय काढाबा चलता थावहां एक छोटा लड़का (छोटूकाम करता थाशायद अनाथ थाउसके पास भी जाने के लिएकोई जगह नहीं होगीवह वहां बैठे चुपचाप दूसरों को पटाखे छोड़ते देख रहा था.
मैं वह दृश्य किसी भी दीपावली में भूल ही नहीं पातीमुझे अफसोस होता है कि हमारा यह समाज कैसा होता जारहा हैजिनका जीवन पटरी से उतर गया हैउनके प्रति हम संवेदनाओं का दीप भी नहीं जलातेदीपोत्सव मेंसबसे बड़ा दीप संवेदना का दीप होता हैसामाजिक विद्रूपताओंविसंगतियोंप्राकृतिक आपदाओं ने जिन लोगों केजीवन में अंधेरा फैला दिया हैउनके साथ ही सही माने में दीपावली मन सकती है.
दूसरी दीपावली जो मुझे याद हैवह दिल्ली के सरोजनी नगर में हुए आतंकी धमाके से जुड़ी हैमैं बच्चों के साथवहां गयी हुई थीमैंने एक चाय वाले को अपनी आंखों से धमाकों का शिकार होते देखा थावह दीपावली मुझेयाद दिला गयी कि मां बचपन में एक दीया निकालती थीजो घूरे पर रखा जाता थाउसे जम का दीया कहतेथे.
दीपावली के एक दिन पहले दक्षिण की ओर मुंह कर के उसे घूरे पर रखा जाता थाउसको देख कर औरतें गीतगाती थींजिसमें सारी बीमारीसारा कर्जामृत्यु का कोपअसामयिक मृत्यु दूर हो जाये आदि का भाव होता था.लेकिन अब हम ऐसे युग में रहते हैंजहां सबकी जेब में क्रेडिट कार्ड है.
ऋण अब चिंता और शर्म की बात नहीं रह गया हैऔर मृत्यु तो ऐसी चीज हो गयी है कि आप सिर पर कफनबांध कर ही घर से निकलते हैंइतनी तरह की असुरक्षाएं हैं कि बच्चे घर से बाहर निकलते हैंतो उनकी मां उनके सुरक्षित लौट आने के लिए देवी-देवता मनाने लगती हैंइसलिए भक्ति-भाव भी बढ़ गया हैक्योंकि-हारेको हरिनाम.
आज प्रकाश चितकबरा हो गया है और हम सब भी चितकबरे हो गये हैं.
अगर हम अपने चितकबरेधब्बेदार वजूद को धोकर सबके लिए प्रकाशअवसर  साधन सुलभ नहीं करेंगेतोहमारी दीपावली बड़ी अटपटी होगीबड़े-बड़े व्यावसायिक तोहफे लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियां इधर-उधर दौड़ती रहती हैंऔर बगल से कोई बच्चा उन गाड़ियों का शीशा पोंछता हुआ गुजर जाता हैयह ऐसा समाज हैजो अकेलेआदमी को और भी अकेला करता है.
दीपावली रोशनी को मिल कर बांटने का उत्सव हैलेकिन यह भावना कहीं नहीं बची हैमुझे ये सब चीजेंदीपावली में विडंबनाओं की कड़ी लगती हैं.
मार्क् ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संसाधन सबके पास होने ही चाहिएक्योंकि वह जीवन का ही हिस्सा हैऔर हम शरीर भी हैंमन भी हैं और आत्मा भी हैंलेकिन गलत संसाधनों से कमाई गयी लक्ष्मी से किसी केजीवन में उजाला नहीं होताऐसी लक्ष्मी आत्मा में सिर्फ और सिर्फ अंधेरा लाती हैनैतिक ढंग से कमाया हुआधनसबको बराबरी से दिया गया अवसर और साधन ही असली दीपावली के सूत्र हैं.
लक्ष्मी का अर्थ होता है मंगलकारी स्त्री चेतनावैसी हर लड़की जिसके जन्म पर आज भी कई लोग मुंह लटकालेते हैंवह एक तरह से आपके जीवन में लक्ष्मी ही हैआप जब आंख बंद कर सोचेंगे कि आपके जीवन के सुखदक्षण कौन से हैंतो आपके दिमाग में कोई  कोई स्त्री चेहरा आयेगावह दादीनानीमांप्रेमिकाबहनबेटीकोई भी हो सकती है.
स्त्रियां लक्ष्मी हैंजिस समाज में लोग देवी को पूजते हैं और स्त्री का अनादर करते हैंउस समाज में फिर से हमेंनये तरीके से चीजों की व्याख्या करनी चाहिए.
इन स्थितियों में भी मुझे यकीन है कि समाज की सोच और व्यवहार में बदलाव आयेगायुवाओंरिटायर्ड लोगों,स्कूल शिक्षकों में मुझे आदर्श की चेतना दिखती हैमेरी साहित्य में गहरी आस्था हैमनुष्य मन के भीतर प्रकाश अंधेरे के बीच एक मनोवैज्ञानिक संघर्ष हमेशा चलता रहता हैसाहित्य हमें प्रकाश की ओर ले जायेगाआज केसमय में साहित्य ही धर्म का स्थानापन्न है.
साहित्यिक मूल्य हीआध्यात्मिक मूल्य हैसाहित्य पढ़े हुए आदमी के बारे में मैं दावे के साथ कह सकती हूं किउसके भीतर हमेशा एक दीया जलता रहता हैजिन आदर्शोशुद्धियोंअच्छे चरित्र के बारे में वह पढ़ता हैवेउसकी कल्पना के स्थायी नागरिक बन जाते हैंगेटे कहते थे-दुनिया का कोई खराब काम ऐसा नहीं हैजो मैं कर पाऊंफिर भी वह नहीं कर पाता हैक्योंकि साहित्य उसे रोकता हैआज जीवन में साहित्य का महत्वकम हो गया हैइसलिए भी मूलचेतना तिरोहित हो रही है.
अगर हम दुनिया में हर जगह भीतर की मूल चेतना जगानेवाले यानी भीतर का दीप जलानेवाले साहित्य कोप्रसारित करेंतो मुझे लगता है कि बहुत हद तक हमारा मनोवैज्ञानिक अंधेरा दूर होगातब सही मायने में हरमन और घर में दीपावली होगी.

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